आचरण सीखें

जन प्रतिनिधि सदन में जो कुछ भी कर रहे हैं, जनता उन्हें ठीक से देख रही है। सिर्फ कालिख से कालिख धोने की कोशिश से बचने की जरूरत है। सबसे अहम बात है कि जन प्रतिनिधियों के आचरण का समाज पर व्यापक प्रभाव देखा जाता है। लेकिन बंगाल की सियासत में जो हो रहा है, उसे दुर्भाग्यजनक कहा जाएगा।

71

आजकल राजनीति में एक अजीब परंपरा चल पड़ी है। जिससे बात नहीं बनती हो, उसे सरेआम गालियां दी जाने लगी हैं। पहले के राजनेताओं में कम से कम इतनी ईमानदारी जरूर थी कि अपने विरोधियों का सम्मान किया करते थे और नहीं चाहकर भी सरेआम किसी को अपमानित करने की सियासत से बचते थे। लेकिन इन दिनों पश्चिम बंगाल की विधानसभा में तो जैसे हर सदस्य एक दूसरे को गालियां देने को उतावला रहता है।

इस क्रम में एक ओर जहां भाजपा के विधायकों की ओर से शासक दल तृणमूल कांग्रेस के विधायकों को चोर-चोर कहा जा रहा है वहीं शासक दल की ओर से तमाम भाजपाइयों को पॉकेटमार कहा जा रहा है। दोनों ओर से आजमाई जा रही भाषा किसी भी कीमत पर सराहनीय नहीं है क्योंकि इस झगड़े में जितने भी लोग शामिल रहे हैं, वे जनप्रतिनिधि हैं और बंगाल की जनता ने उनका चुनाव किया है राज्य के विकास के लिए। पूछा जा सकता है कि चोर-चोर या पॉकेटमार-पॉकेटमार की नारेबाजी से जनता का कुछ भला हुआ क्या।

ज्ञात रहे कि विधानसभा सत्र जब चलता है तो विधायकों को इसकी अलग से फीस दी जाती है। यहां तक कि विधायकों को पगार भी मिलती है। यह पगार अथवा सत्र के दौरान मिलने वाली अतिरिक्त राशि भी जनता के पैसे से ही दी जाती है। ऐसे में एक-दूसरे को राजनीतिक दुश्मनी के कारण गाली देकर ही यदि सदन को बाधित किया जाये तो क्या इसे जनता का अपमान नहीं कहा जाएगा।

लेकिन शायद सत्तापक्ष अथवा विपक्ष किसी को भी इस बात का ध्यान नहीं है। केवल सियासी दुश्मनी की शिकार हो रही है पश्चिम बंगाल की विधानसभा। लोकतंत्र में जहां शासक की भूमिका होती है राज्य में कानून-व्यवस्था को मजबूत करने के साथ ही जनता से जुड़ी समस्याओं का समाधान करने की, वहीं विपक्ष की भूमिका भी होती है कि लोकतांत्रिक तरीके से सरकार के काम की रचनात्मक आलोचना करे तथा काम को अंजाम देने में होने वाली त्रुटियों के प्रति सरकार का ध्यान आकृष्ट कराए। लेकिन अफसोस की बात है कि शासक और विरोधी-दोनों की भूमिका बंगाल में अजीबोगरीब हो चुकी है।

इसी क्रम में पड़ोसी बांग्लादेश से भारत में लगातार हो रही घुसपैठ की समस्या को भी शामिल किया जा सकता है। इस मसले पर सरकार और विपक्ष में ठनी हुई है। जनता के बुनियादी हक के सवालों पर यदि बात होती तथा विकास के नए-नए आयामों पर चर्चा होती तो राज्यवासियों को खुशी होती।

ज्ञात रहे कि जन प्रतिनिधि सदन में जो कुछ भी कर रहे हैं, जनता उन्हें ठीक से देख रही है। सिर्फ कालिख से कालिख धोने की कोशिश से बचने की जरूरत है। सबसे अहम बात है कि जन प्रतिनिधियों के आचरण का समाज पर व्यापक प्रभाव देखा जाता है। लेकिन बंगाल की सियासत में जो हो रहा है, उसे दुर्भाग्यजनक कहा जाएगा।

मिसाल के तौर पर अदालत की उस टिप्पणी को भी लिया जा सकता है जिसमें कलकत्ता हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को लताड़ लगाते हुए कहा है कि क्या राजनीतिक लोगों के बच्चों जैसे झगड़े को सुनने के लिए ही अदालत बैठी है। यदि इन बचकानी बातों में ही अदालतों का वक्त बर्बाद होता रहा तो फिर आम लोगों को इंसाफ कैसे मिलेगा। इस टिप्पणी के आलोक में इस बात की उम्मीद की जानी चाहिए कि राज्य के शासक तथा विरोधी दल के नेता समझदारी से काम करेंगे, आचरण सीखेंगे।