बंगाल के विभाजन का सवाल

पश्चिम बंगाल विधानसभा में राज्य के विभाजन के विरुद्ध सरकारी प्रस्ताव पारित हो गया लेकिन कुछ लोगों तथा खासकर भाजपा के लोगों को राज्य विभाजन के विरुद्ध लिया गया प्रस्ताव असहज कर गया। इस मामले में सबसे मुखर रहे भाजपा के वे विधायक जो उत्तरी बंगाल से चुन कर आए हैं।

इस मसले पर उनकी दलील रही कि राज्य के विभाजन पर जनमत संग्रह कराया जाए। यह मांग बहुत बड़ी है। हालांकि इस मांग को सिरे से ही खारिज कर दिया गया है, मगर जब चिनगारी दिखी है तो कहीं न कहीं आग लगने की आशंका भी बन सकती है।

इससे पहले कि आग लगे, सभी पक्षों को सावधानी से पहल करने की जरूरत आन पड़ी है। 80 के दशक से ही उत्तरी बंगाल तथा खासकर दार्जिलिंग को राज्य से अलग करने की मांग होती रही है। सुबास घिसिंग के जमाने में ही पहली बार इस मुद्दे को लेकर भीषण आंदोलन किया गया था।

उस आंदोलन में पहाड़ की आबादी को काफी परेशानी झेलनी पड़ी थी। घिसिंग के आंदोलन को दबाने के लिए ज्योति बसु ने तब एक स्वायत्तशासी बोर्ड का गठन किया था। बोर्ड गठन के बाद से कुछ हद तक पहाड़ों में शांति कायम हुई थी।

घिसिंग के बाद उनके सिपहसालार रहे कइयों में पहाड़ का नेता बनने की सूझी, जिसमें पहले विमल गुरुंग आए, बाद में विनय तमांग समेत कई नेताओं की कतार देखने को मिली है।

सभी अपनी निजी मांगों को गौण रखकर राज्य सरकार के साथ ब्लैकमेलिंग का तरीका आजमाते हैं और किसी भी तरह गद्दी हासिल होते ही आम पहाड़वासियों की समस्याओं से मुंह फेर लिया करते हैं। यही विडंबना है कि पहाड़ का नेता बनने की कोशिश तो होती है लेकिन नेता बनने वाले लोग ही उगाही करने लग जाते हैं।

राज्य सरकार के साथ भी समस्या है। समस्या यह कि पहले ही बंगाल का एक विभाजन हो चुका है। 1947 में देश विभाजन की विभीषिका झेल चुके बंगाल के लोग आज भी अपनी अस्मिता की लड़ाई लड़ रहे हैं। शुक्र है कुछ बुद्धिजीवियों ने भौगोलिक सीमाओं के विभाजन के बावजूद भाषा और संस्कृति को बचाए रखने में कामयाबी हासिल की है।

लेकिन किसी भी संस्कृति का विभाजन उस सभ्यता को ही अंधकार में लिए जाता है। शायद यही डर है जिससे राज्य सरकार अब और विभाजन की बात नहीं करती। अब आती है उस मसले की चर्चा जिसके कारण राज्य के विभाजन की बात बार-बार उठती है।

पहली बात तो यह है कि कोलकाता में बैठे सियासतदानों को केवल इर्द-गिर्द की समस्याएं ही दिखती हैं। दूर-दराज के इलाकों में क्या हो रहा है-उस पर नजर कम ही जाती है। यही वजह है कि कूचबिहार के लोगों ने कोच सेना बना ली।

जीवन सिंह जैसे नेताओं ने अलग कामतापुरी राज्य की नींव डालने की तैयारी कर ली। कामतापुर आंदोलन तो इतना हिंसक हो गया कि खुद पूर्व सीएम बुद्धदेव भट्टाचार्य के ही खून का प्यासा हो गया। आज भी कामतापुर लिबरेशन आर्मी के लोग भूमिगत रहकर उल्फा के साथ जंगलों में प्रशिक्षण ले रहे हैं।

तीसरी बात यह भी है कि दार्जिलिंग की पहाड़ियों के उस पार नेपाल की गद्दी पर परोक्ष रूप से बैठा चीन अपने घुसपैठियों की मदद से बार-बार पहाड़ी क्षेत्र को भारत से अलग करने की तरकीब सुझाता है।

ऐसे में बेहद जरूरी है कि राज्य सरकार किसी मांग को पूरी तरह दरकिनार नहीं रखकर संबंधित पक्षों से बात करे और स्वायत्तता पर सोचे। लेकिन विभाजन किसी को भी मंजूर नहीं होना चाहिए। दल चाहे जो भी हो, बंगाल एक रहेगा।

इसे भी पढ़ेंः विकास की राह

letest news of bengalletest news of mamata banarjee