और कितना बँटेगा समाज

चुनाव के पहले शायद जानबूझकर ही माहौल को गरम किया जा रहा है। बिहार में जातिगत हिंसा का एक नया दौर शुरू करने की तैयारी की जा चुकी है। हो सकता है कि शासक दल आरजेडी-जदयू गठबंधन के लोगों को इस खेल में थोड़ा राजनीतिक लाभ नजर आता हो लेकिन इसके नतीजे बहुत खतरनाक होने वाले हैं।

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अंग्रेजी शासन से मुक्ति मिली,लगा कि आजादी मिल गई। लेकिन वह आजादी भी बँटकर ही मिली। विभाजन की वह तस्वीर भले आज सत्ता का सुख पा रहे लोग भुला दें लेकिन जिनका पूरा का पूरा परिवार ही बिखर गया था दो समुदायों की दुश्मनी के कारण, वे चाहकर भी किसी नेता के उपदेश से अपना मन नहीं बदल सकते। यही वजह है कि विभाजन की उस तस्वीर को भारत और पाकिस्तान के हुक्मरान हमेशा जिंदा रखना चाहते हैं और जैसे ही कोई सियासी संकट आता है, लोग किसी न किसी तरह उस बुरे सपने की याद दिलाने लगते हैं।

चुनावी मौसम आ गया है

हुकूमत चाहे दिल्ली की हो या इस्लामाबाद की, जिसे संकट समझ में आया वह एक-दूसरे का नाम लेने लगता है। उसे पता है कि दो मुल्कों के बीच जो नफरत का बीज बोया गया था-उसको हरा-भरा रखना राजनीति के लिए सही है। उसी नफरत के बीज को आज तक खाद-पानी देकर दोनों मुल्कों में हरा-भरा रखा जाता है। और मौसम अगर यदि चुनावी हो तो वैसे कई और घाव जिंदा किए जा सकते हैं। भारत में भी एक चुनावी मौसम आ गया है जिसके लिए तरह-तरह के घाव पैदा करने की कोशिश हो रही है।

इस कोशिश में अभी सनातन की बात चल ही रही थी कि एक नई मुसीबत को जन्म दे दिया गया है- यह है बिहार में जातिवाद। नए सिरे से एक और विभाजक रेखा खींच दी गई है जिसमें ब्राह्मण-ठाकुर विवाद पैदा हो गया है। एक ओर मनोज झा की कविता है तो दूसरी ओर गला काटू टीम के ठाकुर नेता। मनोज झा जहां ठाकुर के कुएं के नाम पर अपनी कविता के जरिए सबकुछ ठाकुर का बता लगे हैं वहीं बिहार के राजपूतवादी नेता मनोज की गर्दन उतारने की बात करने लगे हैं। इस विवाद में आहिस्ता-आहिस्ता कुछ और लोग भी शामिल हो जाएंगे।

बिहार में जातिगत हिंसा

कहने का मतलब यह कि चुनाव के पहले शायद जानबूझकर ही माहौल को गरम किया जा रहा है। बिहार में जातिगत हिंसा का एक नया दौर शुरू करने की तैयारी की जा चुकी है। हो सकता है कि शासक दल आरजेडी-जदयू गठबंधन के लोगों को इस खेल में थोड़ा राजनीतिक लाभ नजर आता हो लेकिन इसके नतीजे बहुत खतरनाक होने वाले हैं। मनोज झा ने जिस ठाकुर शब्द का इस्तेमाल अपनी कविता में किया है, उसके कई अर्थ हो सकते हैं। हो सकता है कि उनका इशारा सचमुच राजपूतवाद की ओर ही रहा हो। लेकिन लोकतंत्र में इसका जवाब लोकतांत्रिक तरीके से भी दिया जा सकता है। किंतु सीधे जातिगत झमेले का रूप देकर किसी की गर्दन काट लेने की धमकी समाज को गलत दिशा में ले जा सकती है।

कम से कम बिहार के शासकों को इस बात पर नजर रखनी चाहिए। बड़ी मुश्किल से बिहार जातिगत सेनाओं के चंगुल के बाहर निकला है। अभी गया-औरंगाबाद-बक्सर की मिट्टी उस खूनी हिंसा को भूली नहीं होगी जिसे नक्सलवाद के नाम पर अंजाम दिया गया था। रणवीर सेना के जवाब में लोरिक सेना, लव-कुश सेना और पता नहीं किन-किन सेनाओं का घिनौना रूप बिहार के लोगों ने देखा है- यह बताने की जरूरत नहीं है। विभाजक रेखाएं खींचने वाले केवल अपना तात्कालिक लाभ ही देखते हैं, भावी संकट को भाँप नहीं पाते। जरूरी है कि समाज को बाँटने वाली ताकतों से परहेज रखा जाए और सियासत के लिए देश या संस्कृति के बँटवारे को बढ़ावा नहीं दिया जाए। नीतीश कुमार खुद भी सोशल इंजीनियरिंग में माहिर रहे हैं, उनसे कम से कम इतनी अपेक्षा जरूर की जा सकती है कि समाजवाद को मजबूत करेंगे, जातिवाद से बचेंगे।