बंद हो यह सिलसिला

आजकल की सियासत में एक नई तस्वीर देखी जा रही है जिसमें सत्ता पक्ष हो या विपक्ष, दोनों ओर से ही एक-दूसरे को अपमानित करने वाली भाषा का प्रयोग किया जा रहा है। इसकी सबसे घिनौनी बानगी पश्चिम बंगाल में देखी जा रही है जहां सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच जारी विवाद सुलझने का नाम ही नहीं लेता। हालात आज इतने बदतर हो गए हैं कि एक की बेरुखी से परेशान दूसरे ने खुद मुख्यमंत्री के बहिष्कार की घोषणा कर दी है।

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एक वह भी जमाना था जब राजनीति से जुड़े लोग अपने विरोधियों का भी पूरा सम्मान किया करते थे। भारत का इतिहास इस बात की गवाही देता रहेगा कि पंडित जवाहरलाल नेहरू और डॉ. राममनोहर लोहिया के संबंध कैसे रहे हैं। आजादी के कुछ दशक बाद के इतिहास को भी टटोलें तो यही पता चलता है कि सियासी लोग आपस में मिलजुल कर ही रहा करते थे, अलबत्ता सियासत के लिए एक-दूसरे पर फब्तियां जरूर कस दिया करते थे।

लेकिन आजकल की सियासत में एक नई तस्वीर देखी जा रही है जिसमें सत्ता पक्ष हो या विपक्ष, दोनों ओर से ही एक-दूसरे को अपमानित करने वाली भाषा का प्रयोग किया जा रहा है। इसकी सबसे घिनौनी बानगी पश्चिम बंगाल में देखी जा रही है जहां सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच जारी विवाद सुलझने का नाम ही नहीं लेता। हालात आज इतने बदतर हो गए हैं कि एक की बेरुखी से परेशान दूसरे ने खुद मुख्यमंत्री के बहिष्कार की घोषणा कर दी है। लोकतंत्र के लिए इस फैसले को अत्यंत दुर्भाग्यजनक कहा जाएगा।

मुख्यमंत्री किसी दल का विशेष का नेता हो सकता है लेकिन पद और गोपनीयता की शपथ लेने के बाद वह पूरे राज्य का प्रतिनिधि बन जाता है। सूबे की पूरी आबादी सीएम की ओर टकटकी लगाए रहती है। उसे उम्मीद होती है कि उसकी हालत में सुधार होगा और जिसे सूबे का सीएम बनाया गया है, वह उनके सुख-दुख का साथी बनेगा। होता भी ऐसा ही है।

ममता बनर्जी ने राज्य में वाममोर्चा की सरकार को हटाने के बाद से लगातार जनमुखी योजनाओं को लागू करने का भरपूर प्रयास किया है। उनकी योजनाओं की सूची लगातार लंबी होती चली गई है और उसी के साथ उनसे जुड़ने वाले लोगों की कतार भी आगे निकलती गई। इसमें कुछ ऐसे तत्व भी शासक दल से जुड़ते रहे हैं जिन्होंने पार्टी की छवि को खराब करने की पुरजोर कोशिश की। लेकिन ममता की छवि इतनी साफ रही है कि विपक्ष के तमाम प्रचार के बावजूद लोगों ने तीसरी बार ममता बनर्जी को ही बंगाल का सीएम बनाया है।

ऐसे में विपक्ष में बैठी भाजपा सरकार का विरोध करे तो यह उसका लोकतांत्रिक हक है। मगर विरोध के लिए ही केवल विरोध नहीं किया जाना चाहिए, उसकी सार्थकता भी कुछ होनी चाहिए। हर मसले पर सरकार को घेरना या खुद मुख्यमंत्री को ही बगैर किसी सबूत के भद्दे शब्दों से जोड़ना कहीं भी सराहनीय नहीं कहा जा सकता। लेकिन बंगाल विधानसभा में जिस तरह चोर-चोर के नारे लगाए गए, इसे अभूतपूर्व कहा जाएगा। विपक्ष को भी संयम से काम लेना चाहिए।

जब किसी भ्रष्टाचार के मामले की जांच अदालत की देखरेख में हो रही है तथा किसी को भी अदालत ने अभी तक कसूरवार नहीं ठहराया है तो इस तरह के नारे लगाने का कोई मतलब नहीं है। राज्य की जनता भी सबकुछ देख रही है। पक्ष और विपक्ष दोनों को ही जनता के प्रति जवाबदेह बनना होगा। जनता चाहती है कि उसकी समस्याओं का समाधान हो। जनहित के मुद्दों पर दोनों पक्ष मिलकर आपसी बातचीत से रचनात्मक काम करें। इस तरह भाजपा विधायक दल की ओर से मुख्यमंत्री के बहिष्कार की घोषणा सही नहीं है । विरोध और दुश्मनी में अंतर होना चाहिए। लोकतंत्र में दोनों पक्षों को अपनी मर्यादा का ध्यान रखना होगा तभी लोकतंत्र खुशहाल रहेगा।