राहुल को गरियाने वाले सावधान

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देश पर शासन कर रही भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के नेताओं को अक्सर कांग्रेस के सांसद राहुल गांधी को लेकर मजाकिया अंदाज में बोलते या चुटकी लेते देखा जा सकता है। यह भी सियासत का ही एक अंग हो सकता है जिसमें अपने किसी धुर विरोधी की छवि ऐसी पेश की जाय जिससे लोग उससे दूरी बनाते रहें लेकिन लंबे समय तक किसी भी जुमले को सियासत में आजमाया या चलाया नहीं जा सकता।

यह बात दीगर है कि नई-नई बातें गढ़ी जा सकती हैं और लोगों को नए तरीकों से अपनी ओर लाने की कोशिश हो सकती है। किंतु लगता है कि राहुल गांधी को ऐसे तमाम मजाकिया बयानों से कोई फर्क नहीं पड़ता। वे लगातार अपने अभियान पर चले जा रहे हैं। हो सकता है कि इस अभियान के नतीजे कुछ लोगों की समझ से परे हों, मगर राजनीतिक सोच रखने वालों के लिए राहुल की भारत जोड़ो यात्रा अपने आप में अनूठी कही जाएगी।

आशय यह है कि राहुल ने किसी भी बड़े कांग्रेसी नेता को अपने साथ लेने से परहेज रखा है और सीधे देश के आम लोगों से जुड़ने की कोशिश कर रहे हैं। इसके पीछे एक बड़ी सोच है। दरअसल कांग्रेस के अपने शासनकाल में जिन तरीकों को आजमाया जाता रहा है, उनसे इतर राहुल ने अपनी यात्रा शुरू की है।

और शायद यही वजह है कि उनकी पार्टी में लगातार बढ़ते कलह के बावजूद उन्हें किसी भी बागी नेता को मनाने की कोशिश करते इन दिनों नहीं देखा गया है। शायद उनकी सोच यही है कि पहले पार्टी की आम लोगों में गिरती साख तथा विरोधियों द्वारा किए गए दुष्प्रचार के खिलाफ पूरे देश में एक नई ताकत पैदा की जाए। दुर्भाग्य है कि जिस दल ने देश पर लंबे समय तक शासन किया है, आज उस दल का थिंक टैंक इतना कमजोर हो चुका है कि उसे सही राह दिखाने वालों का अकाल महसूस हो रहा है।

और यही बात शायद राहुल को यात्रा करने को उकसा चुकी है। उनकी यात्रा में जुड़ रहे लोगों की सोच तथा राहुल द्वारा बार-बार दिए जा रहे नपे-तुले बयानों से लगता है कि उन्हें इस बात का इल्म हो चुका है कि बीजेपी को हिंदुत्व के हथियार से कमजोर नहीं किया जा सकता। दक्षिणपंथी विचारधारा से अलग अब कांग्रेस को लगता है खुद को वामपंथी सोच के साथ जोड़ने का फैसला कर लिया है।

वैसे भी राहुल गांधी जिस प्रदेश से संसद के प्रतिनिधि हैं, वहां वामपंथी सोच की बहुतायत रही है। इस अचानक राजनीतिक विचारधारा में उलटफेर को विश्लेषकों की भाषा में राइट टू सेंटर के बजाय लेफ्ट टू सेंटर कहा जा सकता है।

और शायद बीजेपी के लगातार हमलों से बचने की कोशिश में ही राहुल ने वामपंथी सोच के साथ चलने का फैसला लिया है। इंदिरा गांधी ने भी कभी यही प्रयोग किया था। हो सकता है कि राहुल जिस तेजी से आगे बढ़ रहे हैं, उसे समझ पाने में कुछ लोगों को कठिनाई हो।

कुछ लोग यात्रा को लेकर फिर से मजाक करने लगें, मगर यह ध्रुव सत्य है कि वामपंथी सोच के तहत अगर आम लोगों की बुनियादी जरूरतों का मसला पूरे देश में उछाला जाए तो शायद कांग्रेस फिर से नई ताकत बनकर उभर सकती है। दक्षिणपंथी सोच वाले दलों को भी राहुल की इस यात्रा का आशय जरूर समझ में आने लगा होगा। यात्रा किस मोड़ पर समाप्त होती है तथा इससे कैसी फसल उगती है, यह फिलहाल भविष्य के गर्भ में है।