भौगोलिक ध्रुवीकरण
संख्या बल के आधार पर भारत में सरकार बनाने के लिए कम से कम 272 सीटों की जरूरत पड़ती है। इन सीटों की आपूर्ति अगर उत्तर भारत की सीटों से ही हो जाती है तो फिर दक्षिण के विरोध का कोई खास मतलब नहीं रह जाता। इस तरह के ध्रुवीकरण का देश के भावी इतिहास पर गंभीर असर हो सकता है तथा इससे भारत का संघीय ढांचा ही बिगड़ सकता है।
पांच राज्यों के चुनावी नतीजे सामने आने के बाद एक ओर जहां केंद्र में सत्तारूढ़ एनडीए गठबंधन जोश में है, वहीं कांग्रेस के नेतृत्व में बने इंडिया गठबंधन में चुनावी समीकरणों पर मीमांसा हो रही है। नतीजों से यह पता चल गया कि भारत के हिन्दी प्रदेशों में मोदी के आगे किसी और का जादू फिलहाल नहीं चलने वाला है। इसके जवाब के तौर पर हो सकता है कि कांग्रेस समेत पूरा विपक्ष कहे कि दक्षिण में मोदी मैजिक क्यों नहीं चला। वैसे भी, जादू चलने या नहीं चलने की वजह पर समीक्षा होती रहेगी लेकिन एक चीज साफ हो गई है। साफ यह हुआ है कि उत्तर भारत में भाजपा के मुकाबले विपक्ष में कोई नहीं है। लेकिन दक्षिण भारत से भाजपा पूरी तरह साफ हो गई है।
सनद रहे कि दक्षिणी राज्य कर्नाटक के चुनाव में भाजपा ने अपनी सारी कोशिश कर ली लेकिन सफलता नहीं मिली। तेलंगाना में भी भाजपा को वह स्थान नहीं मिला, यहां कांग्रेस की सरकार बन रही है। मतलब यह कि दक्षिणी राज्यों में से केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना से भाजपा पूरी तरह कट चुकी है। इसे अगर लोकसभा चुनाव की नजर से देखें तो पता चलता है कि इन राज्यों में कुल 134 लोकसभा की सीटें हैं।
अब 543 सीटों पर होने वाले चुनाव में से यदि 134 सीटों को दरकिनार भी कर दिया जाए तब भी कुल 309 सीटें बच जाती हैं जिनमें अकेले हिन्दी भाषी प्रदेशों जैसे बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तराखंड, दिल्ली, पंजाब, हरियाणा और राजस्थान की सीटों को ही शामिल कर लिया गया तो दक्षिण की सीटों की उपय़ोगिता कम हो जाती है।
संख्या बल के आधार पर भारत में सरकार बनाने के लिए कम से कम 272 सीटों की जरूरत पड़ती है। इन सीटों की आपूर्ति अगर उत्तर भारत की सीटों से ही हो जाती है तो फिर दक्षिण के विरोध का कोई खास मतलब नहीं रह जाता। इस तरह के ध्रुवीकरण का देश के भावी इतिहास पर गंभीर असर हो सकता है तथा इससे भारत का संघीय ढांचा ही बिगड़ सकता है। मोदी मैजिक का जो प्रभाव हिन्दी प्रदेशों में देखा जा रहा है, उससे अलग एनडीए सरकार को दक्षिण भारत में भी अपनी पकड़ मजबूत करनी होगी अन्यथा चुनावी जीत भले ही किसी की हो जाए, क्षेत्रीय संतुलन नहीं बन सकेगा।
ज्ञात रहे कि भाषाई आधार पर आजादी के तुरंत बाद से ही उत्तर भारत का दक्षिण में विरोध किया जाता रहा है और आज भी दक्षिण की सियासी पार्टियां उसी नक्शेकदम पर चल रही हैं। लेकिन जनसंख्या के विस्तार के आधार पर यदि लोकसभा सीटों का परिसीमन किया गया तो दक्षिण के मुकाबले उत्तर भारत में सीटें बढ़ेंगी। तब भी दक्षिण भारत पर सियासी दबाव कम ही होगा।
ऐसे में बेहतर यही है कि दक्षिण के राज्यों के समझदार नेताओं को अब अपनी हिन्दी विरोध की नीति की समीक्षा करनी होगी। भारत की अखंडता के लिए भी यह बेहद जरूरी कदम होगा। इसके साथ ही केंद्रीय सत्ता में बैठे दलों से भी अपील की जानी चाहिए कि भले ही दक्षिण की आबादी आपके समर्थन में वोट न करे, लेकिन इस बात का ध्यान जरूर रखा जाना चाहिए कि देश के प्रत्येक नागरिक के अधिकारों की सुरक्षा करना केंद्र का दायित्व है। इससे उत्तर और दक्षिण का भेद मिटेगा, भारत और मजबूत होगा।