भाजपा का प्रयोगवाद

मोदी सरकार पिछले साढ़े नौ साल में पूरे भारत में अपना सांगठनिक विस्तार करने की कोशिश जरूर करती रही है लेकिन दक्षिणी राज्यों में उसे वह सफलता अभी तक हाथ नहीं लगी है। प्रधानमंत्री के कथित जादू का असर दक्षिण के लोगों पर अबतक नहीं देखा जा सका है लिहाजा भाजपा को आज भी लोग केवल उत्तर और उत्तर-पश्चिम भारत का दल ही मान रहे हैं।

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लोकसभा चुनाव से पहले जहां मोदी विरोधी शिविर के नेता एक साथ एक मंच पर आ रहे हैं, वहीं एनडीए के एक घटक दल अन्नाद्रमुक का एनडीए से बाहर निकलना कई सवाल खड़े करता है। सबसे पहला सवाल यह है कि अन्नाद्रमुक को एनडीए ने खुद बाहर जाने को कहा है या जयललिता की पार्टी का सचमुच मोदी से मोहभंग हो गया है। इसका जवाब चुनाव के बाद ही मिल सकेगा। दूसरा सवाल है कि भाजपा का तमिलनाडु में कोई दूसरा सहयोगी नहीं है। इसके बावजूद प्रदेश भाजपा अध्यक्ष अन्नामलाई लगातार अन्नाद्रमुक पर हमले करते रहे हैं। यहां तक कि कुमारी जयललिता के बारे में भी कई बार तीखे बयान दे चुके हैं। फिर भी भाजपा ने पार्टी की कमान उन्हीं के हाथों में सौंप रखी है।

गुपचुप कोई गठजोड़ तो नहीं

क्या इसका मतलब यह समझा जाए कि भाजपा सचमुच तमिलनाडु में इस बार अकेली चुनाव लड़ने जा रही है। तीसरा सवाल यह है कि कहीं तमिल मनीला कांग्रेस के साथ गुपचुप कोई गठजोड़ तो नहीं बन रहा है भाजपा का। यदि गठजोड़ बनता भी है तब भी तमिल राजनीति में भाजपा कोई खास पहचान बना सकेगी, यह दावे के साथ नहीं कहा जा सकता। देखा तो यही जा रहा है कि तमाम कोशिशों के बावजूद भारतीय जनता पार्टी का तमिलनाडु में वैसा प्रभावी जनाधार नहीं बन सका है।

तो फिर चौथा सवाल उभरता है कि कोई जानबूझकर बने-बनाए समीकरण को ठीक चुनाव से पहले क्यों बिगाड़ेगा। इसके जवाब में कुछ बातें जरूर कही जा सकती हैं। दरअसल द्रविड़ राजनीति में अभी उदयनिधि स्टालिन ने सनातन पर जो तीर छोड़ा है, उसमें भाजपा शायद यह परखना चाहती है कि हिंदुत्व की तमिलनाडु में कितनी जगह है। ऐसे में अगर अन्नाद्रमुक भी भाजपा के साथ रहती तो शायद खुलकर हिंदू कार्ड खेलने में परेशानी हो सकती थी।

हिंदुत्व की हवा बहाने की कोशिश

समझा यही जाता है कि इसी सोच के तहत अन्नाद्रमुक को एनडीए से बाहर जाने दिया गया होगा। अब तमिलनाडु में भाजपा का कोई सहयोगी नहीं है, लिहाजा वह द्रविड़ सियासत के मुकाबले हिंदुत्व की हवा बहाने की कोशिश करेगी। इसका नतीजा सकारात्मक भी हो सकता है और नकारात्मक भी। यह तमिलनाडु की जनता पर निर्भर है कि वह द्रविड़ मानसिकता से ऊपर उठना चाहेगी या नहीं।

इसी क्रम में एक बात और साफ हो जाती है। दरअसल मोदी सरकार पिछले साढ़े नौ साल में पूरे भारत में अपना सांगठनिक विस्तार करने की कोशिश जरूर करती रही है लेकिन दक्षिणी राज्यों में उसे वह सफलता अभी तक हाथ नहीं लगी है। प्रधानमंत्री के कथित जादू का असर दक्षिण के लोगों पर अबतक नहीं देखा जा सका है लिहाजा भाजपा को आज भी लोग केवल उत्तर और उत्तर-पश्चिम भारत का दल ही मान रहे हैं। अब चूंकि सनातन के खिलाफ दक्षिण में बिगुल फूंक दिया गया है इसलिए एक प्रयास जरूर होगा कि सनातन पंथियों की दक्षिण में मौजूद मानसिकता का जायजा ले लिया जाए।

शायद यही वजह रही है कि तमिलनाडु प्रदेश भाजपा के प्रभारी को खुलकर जयललिता की पार्टी के खिलाफ बोलने दिया गया। इसे राजनीति में भाजपा द्वारा लिया गया एक जोखिम ही कहा जा सकता है क्योंकि तमिल सियासत में द्रमुक या अन्नाद्रमुक का ही अबतक बोलबाला देखा जाता रहा है। इस नये सियासी चमत्कार का असर दक्षिणी राज्य तमिलनाडु में कितना होता है तथा आईएनडीआईए नामक नवगठित मोर्चे में शामिल द्रमुक और कांग्रेस की नीति क्या होती है- यह देखना दिलचस्प होगा।