इंसान ने बड़ी तेजी से तरक्की की राह ली है। जिंदगी तेजी से भाग रही है। इस भागमभाग का आलम यह है कि आधुनिकता की रेस में इंसानियत का कद बौना हो चला है, जिसमें रिश्तों की कोई अहमियत नहीं रह गई है।
सबसे पवित्र रिश्ता कदाचित मां का होता है। मां से संतान का रिश्ता एक अजीब डोर से बंधा होता है जिसकी बराबरी नहीं की जा सकती। लेकिन आज यह रिश्ता भी आधुनिकता की राह पर सिसक रहा है।
कहीं मां किसी पराये के प्यार के कारण अपनी संतान को त्याग देती है तो कहीं संतानें मां-बाप को अपने सुख के लिए राह में छोड़ आते हैं। बड़े-बूढ़ों का सम्मान तो लगभग पिछले दो दशक में ही जाता रहा है। लेकिन उससे भी खतरनाक मोड़ पर जिंदगी आज खड़ी है।
मां-बाप को छोड़ संतानें किसी दूसरे के प्यार के लिए जब उसके साथ हो लेती हैं तो शायद आधुनिकता की यह अंधी दौड़ ही है जो उन्हें किसी एक मंजिल पर ठहरने नहीं देती। उन्हें लगातार कई पायदान लाँघने की तेजी होती है जिसके तहत जिनसे प्यार का रिश्ता कायम किया, उसके टुकड़े करने में भी कोई हिचक नहीं हो रही है।
सवाल यह है कि यह समाज जा कहां रहा है और इसकी मंजिल क्या है। किसी के प्यार में मदहोश संतानें पहले मां-बाप को ठुकराती हैं। फिर जिसके लिए मां-बाप को ठुकराया उसे भी मौत के घाट उतार कर किसी और दिशा की ओर चल देती हैं।
कम से कम इन दिनों दिल्ली के अलावा देश के कई कोने से लोगों को टुकड़े-टुकड़े कर काटने की घटनाएं यही बयां करती हैं कि रिश्तों की अहमियत खत्म होती जा रही है।
आधुनिक या एडवांस कही जाने वाली यह पीढ़ी इतनी जल्दबाजी में है कि इसे कोई बात समझने या समझाने तक की फुरसत नहीं है। यह एक भयानक स्थिति है। यह दौर अगर ऐसे ही चलता रहा तो समाज की तसवीर बदल जाएगी। सामाजिक तानेबाने में आज इतना बिखराव है कि किसी घर में क्या हो रहा है, इसकी खबर पड़ोसी भी नहीं रखा करते।
और इस कोढ़ में खाज का काम कर रहा है सोशल मीडिया, जहां किसी तरह की कोई रोकटोक नहीं है। एक सोशल मीडिया ही है जहां कोई किसी की गलती के लिए डाँटता नहीं है, समझाता नहीं है। केवल लाइक का बटन है, डिस्लाइक (नापसंद) की गुंजाइश कहीं-कहीं तो है ही नहीं।
इस पीढ़ी की हर बात को केवल लाइक (पसंद) ही किया जाएगा तो भला उन उड़ानों पर अंकुश कैसे लगे, जिनसे जिंदगी तार-तार होने वाली है। कुछ लोगों को श्रद्धा और आफताब की प्रेम कहानी में सांप्रदायिकता या लव-जेहाद की बू आ सकती है लेकिन यह मसला ऐसा नहीं है। यह मसला एक ऐसे मजहब को लहूलुहान कर रहा है जिसका नाम है इंसानियत।
नई उड़ान को आतुर नई पीढ़ी को केवल सोशल मीडिया से जोड़कर आश्वस्त हुआ जाता रहा तो रिश्तों के ऐसे कभी 35 तो कभी सौ-सौ टुकड़े भी हो सकते हैं। परिवारों में संवादहीनता और दिखावे की तथाकथित आधुनिकता के जहर से समाज को बचाने की जरूरत है। इसके लिए किसी बड़े समाजशास्त्री को नहीं, परिवार के बड़ों को ही आगे आकर अपनी भूमिका निभानी होगी। इसमें देर की गुंजाइश नहीं।