चुनावी बंदरबांट
जो जिस राज्य में पिछले पांच सालों से सरकार चला रहा है उसने लोगों का जीवन-स्तर विकसित करने का काम जरूर किया है। किंतु तब एक सवाल सामने आता है कि अगर किसी ने पांच सालों की अवधि में सचमुच विकास का काम किया है तो फिर चुनावी मौसम में रेवड़ियां बाँटने की क्या जरूरत है।
अजीब विडंबना है। जो दल सत्ता में नहीं होता है, वह सत्ता तक आने के लिए किस्म-किस्म के वायदे किया करता है। जो सत्ता में है वह कुर्सी पर बने रहने के लिए अपने काम की बड़ाई करता फिरता है। और जनता अभी हकीकत समझ सके तबतक चुनाव की तारीख सामने आ जाती है। इस बीच नेताओं का बचा-खुचा काम मीडिया के लोग पूरा कर दिया करते हैं। मतलब कि पूरा का पूरा तंत्र ही चुनावी ड्यूटी पर होता है जिसमें झूठ और केवल झूठ परोसने की होड़ लग जाती है।
जनता बेचारी ठगी रह जाती है और अगले पांच साल तक के लिए फिर किसी महानुभाव की कृपा तलाशने में जुट जाती है। अभी पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव जारी है जिसके नतीजे आने बाकी हैं। नतीजे आने तक हर दल अपनी-अपनी जीत का दावा कर रहा है। लेकिन अहम सवाल यह है कि किस बूते पर कोई जीत का दावा करता है- इसका जवाब है विकास के नाम पर।
मतलब यह कि जो जिस राज्य में पिछले पांच सालों से सरकार चला रहा है उसने लोगों का जीवन-स्तर विकसित करने का काम जरूर किया है। किंतु तब एक सवाल सामने आता है कि अगर किसी ने पांच सालों की अवधि में सचमुच विकास का काम किया है तो फिर चुनावी मौसम में रेवड़ियां बाँटने की क्या जरूरत है। लोगों को तरह-तरह के प्रलोभन देकर उनका भावनात्मक दोहन करना कहां तक जायज है।
स्मरण रहे कि गुजरात के मुख्यमंत्री रहे नरेंद्र मोदी को जनता ने 2014 में देश का प्रधानमंत्री बनने का जनादेश दिया। तब नरेंद्र मोदी केंद्र सरकार की खैरात नीति का जमकर विरोध करते थे। समझा जाता है कि मनमोहन सिंह की सरकार को अक्सर महंगाई और खैरात के नाम पर तब गुजरात के मुख्यमंत्री खरी-खरी सुनाया करते थे। यहां तक कि पीएम बनने के बाद भी मोदी ने सरकार की खैरात नीति की समीक्षा करने का काम किया तथा कई मामलों में आम लोगों को सरकारी तौर पर मिल रही सब्सिडी को बंद करने का फैसला लिया।
लेकिन 2024 के आम चुनाव से पहले ही पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव की तस्वीर साफ बदलती लग रही है। इन चुनावों के प्रचार के दौरान खुद पीएम मोदी को कहते सुना जा सकता है कि मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ या राजस्थान में भाजपा को अगर सरकार बनाने का मौका दिया गया तो वह कांग्रेस से भी दो कदम आगे बढ़कर लोगों की मदद करेगी। मदद मतलब खैरात।
इस क्षणिक लाभ के लिए लालायित जनता को भी पता है कि चुनाव में किए गये वायदे बहुत कम ही याद रखे जाते हैं। फिर भी जनता के पास कोई विकल्प नहीं होता है। उसे नेताओं की बातों पर ही यकीन करना होता है। लेकिन खैरात की घोषणा करने वाली कांग्रेस या भाजपा से पूछा जा सकता है कि जब देश की आर्थिक हालत पहले से ही इतनी खराब हो, महंगाई चरम पर खड़ी हो, जरूरी सामान की कमी से देश जूझ रहा हो तथा विश्व की राजनीति में उथल-पुथल हो तो खैरात के जरिए भारत किस मोर्चे पर मजबूत होगा।
चुनावी बयार में अपनी-अपनी डफली सबको बजाने का पूरा हक है लेकिन कम से कम देश के सामाजिक-आर्थिक ढांचे से खिलवाड़ नहीं किया जाना चाहिए। अगर बैठे-बिठाए ही लोगों में रेवड़ियां बाँटी जाती रहीं तो समाज कितना पंगु होगा-इस पर भी एक बार विचार जरूर कर लेना चाहिए।