चुनावी चंदे की चर्चा

फंडिंग एक बड़ी समस्या है। चुनाव के खर्च दिन पर दिन बढ़ते जा रहे हैं। इस समस्या से भारत के अलावा दुनिया के कई दूसरे लोकतांत्रिक देश भी पीड़ित हैं। राजनीतिक चंदे देने में सबसे बड़ी कठिनाई यह रही है कि इसमें चंदे की अधिकतम राशि तय की जाती रही है लेकिन बॉन्ड आने के बाद से इसकी भी जरूरत नहीं रही।

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प्रायः हर लोकतांत्रिक सरकार में राजनीतिक दलों की अहम भूमिका हुआ करती है। दलों का देश से अलग अस्तित्व भले हो, उन्हें देश की आबादी से भले ही कोई लेना-देना न हो, लेकिन लोकतांत्रिक ढांचे में खुद को ढालने की उनकी कोशिश लगातार जारी रहा करती है। इसके लिए उन्हें चुनाव लड़ने होते हैं। ऐसे में दलों के कार्यकर्ता या समर्थकों की संख्या भी बढ़ानी पड़ती है। और इसके लिए उन्हें अपने सांगठनिक ढांचे को मजबूत करने के लिए काफी धन की जरूरत होती है।

तब मसला यह पैदा होता है कि राजनीतिक दलों को धन देगा कौन। इसके लिए भारत में एक पुरानी परंपरा रही है। कुछ नामचीन लोगों से ही कुछ बड़े दलों के चंदे लिए जाते रहे हैं। बाद में वामदलों ने आम जनता के बीच जाकर राजनीतिक चंदा उगाही का रास्ता अपनाया। धीरे-धीरे दलों के लिए फंडिंग की समस्या और बढ़ी तो इलेक्टोरल बॉन्ड जारी करने की शुरुआत हुई। इस बॉन्ड को निर्वाचन आयोग ने गलत करार दिया था फिर भी कई दलों को यही तरीका अच्छा लगा और बॉन्ड के जरिए ही चंदे उगाही किए जा रहे हैं।

घोटाले की आशंका

फंडिंग एक बड़ी समस्या है। चुनाव के खर्च दिन पर दिन बढ़ते जा रहे हैं। इस समस्या से भारत के अलावा दुनिया के कई दूसरे लोकतांत्रिक देश भी पीड़ित हैं। राजनीतिक चंदे देने में सबसे बड़ी कठिनाई यह रही है कि इसमें चंदे की अधिकतम राशि तय की जाती रही है लेकिन बॉन्ड आने के बाद से इसकी भी जरूरत नहीं रही। यहां तक कि चंदा देने वाले व्यक्ति या संस्थान के नाम का खुलासा भी अनिवार्य नहीं है। इसमें कई तरह के घोटाले की आशंका बनती है।

फंडिंग की समस्या से बचने के लिए ही कुछ देशों में सरकारी फंडिंग की बात तय की गई है लेकिन भारत जैसे देश में वह भी संभव नहीं है। सरकारी फंडिंग में समस्या यह है कि जिस दल ने चुनाव में जितना प्रतिशत वोट पाया है, उसे उसके अनुसार ही सरकारी फंड मिलेगा। मतलब यह कि बड़े दलों को इसमें फायदा हो जाएगा और बाकी लोग आसमान देखते रह जाएंगे।

इन विसंगतियों को दूर करने की दिशा में ही भारत में ठोस राह तलाशने की प्रक्रिया शुरू की गई है। बाकायदा सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ इस मसले पर माथापच्ची कर रही है जिसमें प्रख्यात अधिवक्ता प्रशांत भूषण की दलील है कि मतदाताओं को यह जानने का हक होना चाहिए कि किस दल को किस संगठन की ओर से कितना चुनावी चंदा दिया गया है।

भ्रष्टाचार की गुंजाइश

अदालत का मानना है कि तयशुदा नियमों के अनुसार चंदा देने वालों के नामों का खुलासा नहीं किया जाना चाहिए लेकिन प्रशांत भूषण का दावा है कि गुप्त रूप से दिए गए चंदे की वजह से भ्रष्टाचार की गुंजाइश बनती है। इस दलील को भी सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता। ज्ञात रहे कि अतीत में कई घटनाएं सामने आ चुकी हैं जिनमें राजनीतिक दलों को चंदे देकर सरकार को चुनाव बाद कई तरह से दूहा जाता रहा है।

राजनीतिक दलों की फंडिंग का यही मामला पेचीदा होता जा रहा है। दुनिया के प्रायः हर लोकतांत्रिक देश में इस मुद्दे पर बहस जारी है और इसके साथ भारत में भी शीर्ष अदालत में सुनवाई हो रही है। इस समस्या का शीघ्र समाधान हो तो कम से कम सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार पर लगाम कसी जा सकेगी।