आँकड़ों का सच-झूठ
नीति आयोग की बैठकों में देश का विकास कितना हुआ यह तो अभी साफ नहीं हो सका है लेकिन एक नया तरीका जरूर खोज निकाला गया है, जिससे पता चल सके कि भारत में गरीबी की क्या स्थिति है।
योजना आयोग की जगह देश में तरक्की के लिए नए आयोग का गठन किया गया। नाम दिया गया नीति आयोग। नीति आयोग की बैठकों में देश का विकास कितना हुआ यह तो अभी साफ नहीं हो सका है लेकिन एक नया तरीका जरूर खोज निकाला गया है, जिससे पता चल सके कि भारत में गरीबी की क्या स्थिति है। गरीबी मापने के लिए नीति आयोग ने एक नया पैमाना तय किया है जिसे गरीबी सूचकांक भी कहा जा सकता है। इसे नीति आयोग ने बहुआयामी गरीबी सूचकांक का नाम दिया है। इस सूचकांक के आधार पर कहा जा सकता है कि देश में गरीबों की संख्या पिछले सालों में पहले की अपेक्षा कम हुई है लेकिन आज भी प्रत्येक सात में से एक भारतीय गरीबी में जी रहा है।
इस गरीबी को परिभाषित करने के लिए आय़ोग ने लोगों के जीवन चक्र को स्वास्थ्य, शिक्षा तथा रहन-सहन को तीन हिस्सों में रखा है। स्वास्थ्य के मामले में जो आकलन किया गया है, उसमें यह तय किया गया है कि बच्चों या युवाओं तथा माताओं के मृत्यु दर के साथ ही पोषण को भी रखा जाए। इस आधार पर हाल में पेश की गई रिपोर्ट बताती है कि 2015-16 में लोगों का गरीबी सूचकांक जहां 24.85 फीसदी था वह 2019-21 के दौरान घटकर 14.96 फीसदी तक आ चुका है। मतलब इतने सालों में तकरीबन 13.5 करोड़ भारतीय लोग गरीबी सूचकांक से बाहर निकल चुके हैं।
बहुआयामी गरीबी सूचकांक में स्वास्थ्य के अलावा शिक्षा को भी शामिल किया गया है जिसमें स्कूल में बिताए समय को भी शामिल किया गया है। नीति आयोग की दलील है कि बच्चों के स्कूल में बिताए समय के अनुसार गरीबी का सूचकांक पता चलता है। कुपोषण और स्वास्थ्य के आधार पर गरीबी तय करने की इस विधि के अलावा लोगों के रहन-सहन के आधार पर भी गरीबी का पता लगाया गया है। इसके तहत लोगों के घरों में इस्तेमाल किए जाने वाले ईंधन के अलावा शौचालय की मौजूदगी, पेय जल की उपलब्धता तथा बैंक खाता मौजूद होने को भी गरीबी सूचकांक में दाखिल किया गया है। मूल बात यह है कि अगर किसी के घर में ईंधन के तौर पर यदि रसोई गैस का इस्तेमाल किया जा रहा है, उसका बैंक खाता भी तथा उसके घर में पेय जल के अलावा शौचालय की व्यवस्था हो गई है तो वह इस बहुआयामी गरीबी सूचकांक से बाहर है।
यदि कम उम्र के बच्चों की मृत्युदर पहले से कम हो रही है या किसी बच्चे की ऊंचाई अथवा वजन के लिए तय बीएमआई के बराबर ही उसकी ऊंचाई हो जाती है तो वह परिवार गरीबी सूचकांक से बाहर हो जाता है। इस तरह के गणित का इस्तेमाल करके सरकार की ओर से बताया गया है कि पिछले 5-6 सालों में बहुआयामी गरीबी कम हुई है। मगर यह केवल आँकड़ों का खेल है। आँकड़ों के पंडित इसीलिए सरकारी महकमे में पाले जाते हैं कि सरकार की बहादुरी गिनाएं।
हकीकत तो यह है कि कोरोना के बाद से लोगों में बेरोजगारी बढ़ी है, प्रति व्यक्ति आय कम हुई है। मोटे तौर पर जहां लोगों की आय कम हो रही है, वहीं सरकारी फाइलें भले ही गरीबी हट जाने का दावा करें मगर हकीकत यही है कि मूल्यवृद्धि के साथ-साथ गरीबी भी कहीं न कहीं बढ़ती गई है। और यही वजह है कि बहुआयामी गरीबी सूचकांक का हिसाब रखने वाले नीति आयोग के लोगों ने भी कबूल किया है कि भारत के हर सात लोगों में से एक आदमी आज भी गरीबी सूचकांक के हिसाब से गरीब ही है। जरूरत है कि इस गरीबी से समाज को निकालने की जुगत आजमाई जाए।