अविश्वास पर बहस

अविश्वास प्रस्ताव पर हुई बहस से कम से कम देश को यह पता चल गया है कि राहुल में संभावनाएं तो हैं लेकिन उन्हें अभी और मेहनत करनी होगी। भारत की आत्मा को समझना होगा।

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विश्वास पर अक्सर बहस की जरूरत नहीं हुआ करती। बहस की शुरुआत ही होती है अविश्वास से। देश की संसद इस बात की गवाह बनी कि कैसे तीन दिनों तक लगभग सारे विधायी कामकाज ठप करके केवल सियासी तानेबाने बुने जा सकते हैं। मुद्दा था मणिपुर की हिंसा का। मणिपुर में हिंसा की घटना की जितनी भी निंदा की जाए, कम है। लेकिन प्रतिपक्ष को इस बात की चिंता सताए जा रही थी कि इतना कुछ होने के बावजूद आखिर देश के प्रधानमंत्री इस मसले पर कुछ बोलते क्यों नहीं हैं।

दलील दी जा रही है कि नवगठित गैर-भाजपा गठबंधन के इंडिया के नेताओं की जिद यही थी कि पीएम संसद में मणिपुर मसले पर बयान दें। चलो, पीएम का बयान भी हो गया। अविश्वास प्रस्ताव गिर गया। लेकिन पूछा जा सकता है शासक और विरोधी गुट के लोगों से कि क्या इस भाषण से मणिपुर के घाव भर गए। क्या जिन महिलाओं के साथ घिनौनी वारदातें हुईं, उन्हें इंसाफ मिल गया। अगर नहीं, तो फिर क्या संसद में तीन दिनों तक अपने-अपने गुट या दल के लिए केवल चुनाव प्रचार हो रहा था। और प्रचार भी क्या जनता की गाढ़ी कमाई के बूते।

मोदी सरनेम के बहाने

इस प्रसंग में एक बात और कहने लायक है। कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने भारत जोड़ो यात्रा की। इससे उनकी प्रसिद्धि बढ़ी। उनकी सियासी समझ के भी लोग कायल होते जा रहे हैं। राहुल की यात्रा के बाद से ही कांग्रेस भी आहिस्ता-आहिस्ता मजबूत हो रही है। उन्हें मोदी सरनेम के बहाने कथित तौर पर राजनीति की मुख्यधारा से ही हटा दिया गया था।

भला हो सुप्रीम कोर्ट का जिसने राहुल की उम्मीद फिर से जगा दी है। ऐसे में अविश्वास प्रस्ताव पर राहुल ने मणिपुर के लोगों की यातना के बारे में जो कुछ भी बताया, वह मर्मस्पर्शी था। लेकिन मणिपुर से अलग राहुल के भाषण में व्यक्तिगत अनुभव तथा व्यक्तिगत हमला अधिक दिखा। राहुल गांधी को अगर मोदी का विकल्प बनाया जा रहा है या नवगठित इंडिया गठबंधन का उन्हें नेता बनाया जा रहा है तो उनका भाषण और भी प्रभावी होना चाहिए था। व्यक्ति से बड़ा होता है प्रतिष्ठान। राहुल के राजनीतिक सलाहकारों को इस मामले में खास होमवर्क कर लेना चाहिए था।

विपक्ष पर चुटकी

अविश्वास प्रस्ताव की बहस में विपक्षी खेमे की ओर से जो कहा गया तथा उसके जवाब में सरकारी पक्ष ने जो कहा, उससे साफ लग रहा था कि विपक्ष पूरी तरह सरकार को घेरने के लिए तैयार नहीं था। शायद इसीलिए पीएम मोदी ने भी विपक्ष पर चुटकी लेते हुए अगले पांच साल बाद फिर अविश्वास प्रस्ताव पेश करने की बात कह दी। इंडिया गठबंधन को यह समझना जरूरी है कि एनडीए अब तीसरे चरण में सत्ता हथियाने की तैयारी में लगा है। मोदी की वाक्पटुता और हाजिरजवाबी से आज भी देश के लोग प्रभावित होते हैं। ऐसे में बगैर खासा होमवर्क किए केवल व्यक्तिगत हमले से काम नहीं होने वाला। विपक्ष के पास कई और सामाजिक मुद्दे थे जिन पर संसद में सरकार को घेरा जा सकता था लेकिन राहुल गांधी या उनकी टीम वैसा नहीं कर सकी।

अविश्वास प्रस्ताव पर हुई बहस से कम से कम देश को यह पता चल गया है कि राहुल में संभावनाएं तो हैं लेकिन उन्हें अभी और मेहनत करनी होगी। भारत की आत्मा को समझना होगा क्योंकि जिस तरह जाते-जाते उन्होंने फ्लाइंग किस देने की कोशिश की, उससे हो सकता है कि उनके भक्तों को खुशी हुई हो- लेकिन भारतीय संस्कृति अभी ऐसी हरकतों की अभ्यस्त नहीं हुई है। राहुल खुद की समीक्षा करें।