चुनाव आयोग का चुनाव

हर बदलाव का कुछ लक्ष्य होता है। इस बदलाव का लक्ष्य क्या होने वाला है, देश की जनता खूब समझ सकती है। लोकतंत्र की जितनी भी दुहाई दी जाए लेकिन धरातल पर जो सच्चाई दिखने लगी है वह यही बता रही है कि चुनाव आयोग में अब नए सिरे से जिनका भी चयन होगा, वे सरकारी हुक्म की तामील करने के लिए ही रहेंगे।

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दिन जैसे-जैसे गुजर रहे हैं, उनसे यह उम्मीद बनने लगी है कि कई विधानसभाओं के अलावा लोकसभा के चुनाव भी अब करीब आ गए हैं। इसके पहले ही केंद्र की एनडीए सरकार ने चुनाव आयोग के चुनाव का रास्ता अख्तियार किया है। चुनाव भी इसीलिए किया जा रहा है क्योंकि संसद में सरकार का बहुमत है। वह जो चाहे कर सकती है। लेकिन लोकतंत्र में जो चाहे कर देने को एकनायकतंत्र कहा जाता है, इस बात को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए।

हुआ यह है कि पूरे नागरिक समाज को दरकिनार करके केंद्र सरकार ने चीफ इलेक्शन कमिश्नर एंड अदर इलेक्शन कमिश्नर्स (एप्वाइंटमेंट, कंडीशन ऑफ सर्विस एंड टर्म्स ऑफ ऑफिस) बिल-2023 को पेश कर दिया है। इससे चुनाव आयोग के प्रारूप में बदलाव तय है। सर्च कमेटी के बदले कॉलेजियम की व्यवस्था होगी जिसमें एक कार्यपालिका के मनोनीत सदस्य को रखा जाएगा तथा राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद वही आयोग कारगर हो जाएगा।

सरकार की अहम भूमिका

इससे इतना जाहिर हो जाता है कि चुनाव आयोग के चयन में सरकार की अहम भूमिका रहने वाली है क्योंकि कार्यपालिका से जिन लोगों का मनोनयन किया जाएगा उनके अलावा इस कमेटी में प्रधानमंत्री और विपक्ष के नेता के अलावा किसी कैबिनेट मंत्री को भी रखा जाएगा। चूंकि कार्यपालिका से संबंध रखने वाले लोगों पर शासक दल का प्रभाव होता ही है, इससे साफ जाहिर है कि शासक दल की मर्जी के खिलाफ किसी भी आयुक्त का चयन नहीं हो सकता। विपक्ष के नेता को नाम के लिए कमेटी में जरूर रखा जाएगा लेकिन जब विपक्षी दल के लोगों को संसद में ही अपनी बात रखने की इजाजत मुश्किल से मिलती है तो फिर बंद कमरे में लिए गए फैसले के बारे में आसानी से समझा जा सकता है।

इस नई व्यवस्था के तहत न्यायपालिका की भूमिका समाप्त हो रही है। होना तो यही चाहिए कि सर्च कमेटी में पीएम और उनकी कैबिनेट के किसी सहयोगी के अलावा नेता प्रतिपक्ष और भारत के मुख्य न्यायाधीश को रखा जाए। लेकिन इस नए बिल को पेश किए जाने के बाद इसकी संभावना पूरी तरह समाप्त हो जाती है तथा संकेत यही मिलता है कि सरकार या शासक दल की मर्जी ही चुनाव आयोग के चुनाव में सर्वोपरि रहने वाली है।  इस विधेयक के तहत यह प्रावधान भी रखा जा रहा है कि यह कमेटी प्रशासन के अतिरिक्त भी यदि किसी व्यक्ति को चुनाव प्रक्रिया में काम करने का अनुभवी मानती है तो उसका मनोनयन कर सकती है।

बदलाव का लक्ष्य

आशय यह है कि हर बदलाव का कुछ लक्ष्य होता है। इस बदलाव का लक्ष्य क्या होने वाला है, देश की जनता खूब समझ सकती है। लोकतंत्र की जितनी भी दुहाई दी जाए लेकिन धरातल पर जो सच्चाई दिखने लगी है वह यही बता रही है कि चुनाव आयोग में अब नए सिरे से जिनका भी चयन होगा, वे सरकारी हुक्म की तामील करने के लिए ही रहेंगे। ऐसे में चुनाव आयोग जैसी किसी स्वायत्तशासी संस्था को यदि शासक दल की मर्जी का गुलाम बनाने की तरकीब को अमल में लाया जा रहा है तो इसे कम से कम लोकतंत्र के लिए सराहनीय नहीं कहा जा सकता।

ध्यान रहे कि सरकारी गफलतों पर टोकाटोकी करने का वैधानिक हक जिस न्यायपालिका को मिला है, चुनाव आयोग के गठन में उसकी भी भागीदारी सुनिश्चित की जाती तो देश की अवाम संतुष्ट रह सकती थी। बहरहाल, इस विधेयक के लाने का प्रतिफल क्या होने वाला है-यह भविष्य ही तय करेगा।