दल या दलदल

ये दल लोगों के वोट लेने के लिए कई तरह के वादे किया करते हैं लेकिन चुनाव जीत जाने के बाद फिर उस जनता से पूछने तक नहीं जाते कि आगे क्या करना है।

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लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में दलों की अहम भूमिका हुआ करती है। दलों की ओर से ही चुनाव में प्रत्याशी खड़े किए जाते हैं जिन्हें जनता वोट देकर चुनने का काम करती है। ये दल लोगों के वोट लेने के लिए कई तरह के वादे किया करते हैं लेकिन चुनाव जीत जाने के बाद फिर उस जनता से पूछने तक नहीं जाते कि आगे क्या करना है। यहां तक कि दूसरे दलों से रुपये लेकर जब विधान मंडलों या संसद में किसी मसले पर मतदान की बात आती है तब भी जनता से नहीं पूछते। जहां से और जिस तरकीब से आर्थिक लाभ है, ये वही काम करने लगते हैं।

सभी दलों के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता लेकिन कुछ लोग जरूर ऐसा करते रहते हैं। ऐसे दलों को दल नहीं कहकर जनता आजकल दलदल कहने लगी है। और शायद इसी दलदल के बूते 2024 की चुनावी लड़ाई का बिगुल फूंका जा रहा है। लड़ाई दलदल से नहीं दलों की ताकत से होगी क्योंकि जनता को भी दलों पर भरोसा होता है, दलदल पर नहीं।

कुछ दल हैं, कुछ दलदल

ऐसे में केंद्रीय स्तर पर दो धड़े फिलहाल सामने आ रहे हैं। एक पहले से ही काबिज है जिसे एऩडीए कहा जाता है जबकि दूसरा है इंडिया गठबंधन। दोनों ही गठबंधनों में कुछ दल हैं, कुछ दलदल भी हो सकते हैं। दोनों गठबंधनों को इन दलदलों से सावधान रहने की जरूरत पड़ेगी। किंतु एनडीए ने जिस तरह से अपने सहयोगी दलों की बैठक बुलाई और आनन-फानन में सहयोगियों की संख्या बढ़ाने की कोशिश की है, उससे लगता है कि विपक्षी गठबंधन का दबाव भाजपा पर बनने लगा है।

ज्ञात रहे कि भारतीय जनता पार्टी पर सांप्रदायिकता की सियासत करने का आरोप जब लग रहा था तो समाजवादी नेता जार्ज फर्नांडीज ने अटल बिहारी वाजपेयी के साथ खड़े होने का साहस किया और भाजपा को धर्मनिरपेक्ष दल करार देने का काम किया। उसके बाद से भाजपा ने कई दलों को साथी बनाया और कालक्रम में भाजपा के साथियों ने जिस गठबंधन को खड़ा किया उसका नाम एनडीए रखा गया।

यह और बात है कि पुराने एनडीए गठबंधन के सहयोगियों में से शिरोमणि अकाली दल, चंद्रबाबू नायडू, तृणमूल कांग्रेस, शिवसेना  व जनता दल युनाइटेड (तब की समता पार्टी)  ने धीरे-धीरे एनडीए का साथ छोड़ दिया। साथ छोड़ने वालों की दलील क्या थी, क्यों गठबंधन से बाहर निकले-इन बातों की समीक्षा की जानी चाहिए थी। शायद समीक्षा हो भी रही हो लेकिन जिस आनन-फानन में लोगों को जोड़कर दलों की संख्या बढ़ाई जा रही है उससे भाजपा की बेचैनी ही झलकती है।

उभर रहे हैं कई सवाल

दूसरी ओर विपक्षी खेमे में व्यापक परिवर्तन है। शरद पवार पहली बैठक में जितने मुखर थे, दूसरी बैठक में उन्हें खामोश देखा गया। ममता बनर्जी को पहले राहुल गांधी की काबिलिय़त पर संदेह हुआ करता था, लेकिन दूसरी बैठक में उन्होंने जमकर राहुल की तारीफ कर डाली। केजरीवाल की पार्टी ने पंजे का साथ शर्तों के आधार पर देने की घोषणा कर दी। नीतीश कुमार को जहां विपक्षी गठबंधन के संयोजक के रूप में दिखाने की कोशिश हो रही थी, अचानक उन्हें खामोश कर दिया गया। दबी जुबान से पटना में उभर रहे असंतोष की बात की जा रही है।

कोलकाता की सियासत में भी कांग्रेस और सीपीएम के समर्थकों में विपक्षी गठबंधन को लेकर कई सवाल उभर रहे हैं। मतलब यह कि अपने-अपने राजनीतिक एजेंडे को त्यागकर यदि मोदी सरकार के खिलाफ मोर्चाबंदी भी होती है तो इसके नतीजे दलदलों की भूमिका पर ज्यादा निर्भर होंगे। ऐसे में दोनों ही गठबंधनों क्रमशः एनडीए और इंडिया के साथियों को सावधानी से आगे बढ़ने की जरूरत होगी।