एक देश, कई सवाल
धर्म के नाम पर या वर्ग के नाम पर किसी तरह के कानून की गुंजाइश के बदले सभी नागरिकों के लिए एक ही कानून की व्यवस्था कर दी जाए। हो सकता है कि इस पर सभी दलों की आपसी बातचीत के बाद आम सहमति भी बन जाए, तब भी जनता के विचार जानने की जरूरत होगी। कानून थोपने का असर प्रतिकूल भी हो सकता है।
सरकार को अचानक एक नई बात शायद सूझी है। आनन-फानन में घोषणा कर दी गई है कि संसद का विशेष सत्र आयोजित करना है। विशेष सत्र क्यों आयोजित किया जा रहा है, इस बारे में भी तरह-तरह की बातें की जा रही हैं। केंद्रीय सरकार के कुछ लोगों का दावा है कि एक देश, एक चुनाव से संबंधित किसी महत्वपूर्ण विधेयक को लाने की तैयारी हो रही है। तैयारी की जानी चाहिए मगर कुछ बातों को ध्यान में रखकर ही। सबसे पहली बात है कि भारत कई राज्यों का एक संघ है जिसे संविधान ने अपने में जोड़े रखा है।
मतलब यह कि विभिन्न भाषाओं, बोलियों, रहन-सहन, परिवेश तथा मान्यताओं वाली विविधता का भी ख्याल रखना चाहिए। इसके साथ ही कुछ राज्य सरकारों की अवधि अभी शुरू ही हुई है। उन्हें साढ़े-तीन से चार साल का काम अभी पूरा करना है-उनके साथ क्या किया जाएगा, इस पर भी विचार करना जरूरी है।
आजादी के बाद की परंपरा
यह सही है कि आजादी के बाद के कुछ सालों तक एक ही साथ सारे चुनाव कराने की परंपरा रही है। लेकिन कालक्रम में सियासी उथल-पुथल के कारण कई बदलाव होते गए और विधानसभा और लोकसभा के कार्यकाल में अंतर आता गया। आज अगर एक ही साथ लोकसभा और विधानसभा के चुनाव कराने की बात होती है तो उसके लिए संसद के दोनों सदनों में सरकार को दो-तिहाई बहुमत चाहिए।
प्रधानमंत्री का मानना है कि एक ही साथ यदि सारे चुनाव करा लिए जाएं तो कम से कम हर सरकार को पांच साल तक बगैर किसी प्रचार में उतरे काम करने का भरपूर मौका मिलता है। बात सही है। लेकिन इस बात की गारंटी कैसे दी जाएगी कि केंद्र में बैठी कोई सरकार किसी राज्य सरकार को संवैधानिक तरीके से पांच साल तक काम करने ही देगी। क्या मौजूदा केंद्र सरकार यह भी तय करने वाली है कि किसी भी राज्य में कानून-व्यवस्था की हालत चाहे जितनी ही क्यों न खराब हो जाए-उस सरकार को पांच साल तक चलने ही दिया जाएगा। शायद ऐसा कर पाना संभव नहीं होगा। इसके अलावा कुछ लोगों की दलील है कि एक देश, एक कानून की बात भी हो सकती है।
कानून थोपने का असर प्रतिकूल
मतलब यह कि धर्म के नाम पर या वर्ग के नाम पर किसी तरह के कानून की गुंजाइश के बदले सभी नागरिकों के लिए एक ही कानून की व्यवस्था कर दी जाए। हो सकता है कि इस पर सभी दलों की आपसी बातचीत के बाद आम सहमति भी बन जाए, तब भी जनता के विचार जानने की जरूरत होगी। कानून थोपने का असर प्रतिकूल भी हो सकता है। इस बारे में भी सरकार को गंभीरता से विचार कर लेना होगा। रही बात जम्मू-कश्मीर के चुनाव की, तो इसके बारे में कम से कम केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को जो बताया है उससे साफ हो जाता है कि घाटी में चुनाव अब जरूर कराए जाएंगे। वहां के माहौल को देखते हुए चुनाव आयोग कब और कैसे चुनाव की घोषणा करता है-यह देखना होगा।
विशेष सत्र के जरिए केंद्र सरकार चंद्रयान-3 की सफलता को भले ही गिनाकर मतदाताओं को खुशफहमी में रखे लेकिन अच्छे दिनों की तलाश तब भी जारी रहेगी और रोटी-कपड़ा-मकान से जुड़े सवाल तब भी पूछे जाएंगे। अब देखना रोचक होगा कि संसद का यह विशेष सत्र देश को कौन-सी दिशा दे रहा है या सरकार क्या संदेश देने वाली है।