गोरखा सैनिकों की बहादुरी

नए सिरे से गोरखा जवानों की जरूरत महसूस की जा रही है जिसकी कमी कुमायूँ और गढ़वाल के जवानों से पूरी की जा रही है। दबी जुबान से सेना के बड़े अफसर भी गोरखा जवानों की लगातार हो रही कमी का जिक्र तो करते हैं मगर खुल कर बोलने में सकुचाते हैं।

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भारतीय सेना की वीरता के किस्से काफी मशहूर हैं। भारतीय फौजियों ने दुनिया के कई देशों में अपने काम का नमूना छोड़ रखा है जिस पर हर भारतीय को नाज होता है। हाल ही में अग्निवीरों को सेना में नियुक्त करने का जो तरीका सरकार की ओर से पेश किया गया, वह नायाब है। मगर एक चूक शायद हो गई है और वह है गोरखा सैनिकों की बहाली को लेकर। सुरक्षा के इस अति संवेदनशील मामले में पता चला है कि भारत सरकार ने अग्निवीरों की नियुक्ति पर पड़ोसी नेपाल से कोई बात नहीं की है। बात नहीं करने की वजह भी है। दरअसल, राजतंत्र के सफाए के बाद से नेपाल में जितनी भी लोकतांत्रिक सरकारें बनीं, किसी ने भी स्थायित्व का संकेत नहीं दिया। नतीजतन काठमांडू में भारत की अपेक्षा चीन का प्रभाव देखा जाता रहा।

गोरखा सैनिकों की नियुक्ति

भारत और नेपाल दोनों ही देश सांस्कृतिक रूप में एक-दूसरे के बहुत करीब रहे हैं। इस करीबी का ही नतीजा रहा कि भारत सरकार की ओर से आजादी के समय देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने नेपाल सरकार से गोरखा सैनिकों की भारतीय सेना में नियुक्ति के मसले पर समझौता किया था। तब भारतीय फौज में दोनों ही देशों की सरकारें गोरखा सैनिकों की नियुक्ति पर सहमत थीं। आजादी के बहुत पहले से ही अंग्रेजी राज में जो भारतीय फौज थी, उसमें गोरखा सैनिकों की बहादुरी के अंग्रेज भी कायल थे। इसीलिए आजादी के बाद पं. नेहरू ने भी गोरखा सैनिकों तथा गोरखा रेजिमेंट को मजबूत करने पर बल दिया था। लेकिन कालक्रम में भारतीय फौज में गोरखा सैनिकों की संख्या घटती चली गई है।

सरकार भले ही मानती है कि गोरखा रेजिमेंट में गोरखा जवानों की संख्या घट रही है लेकिन नए सिरे से नेपाल में रह रहे गोरखा जवानों को नियुक्त नहीं किया जा सका है। इसके पीछे की वजह जानकारों के अनुसार यह है कि भारत में रह रहे गोरखा जवानों का समर्पण भारत सरकार के साथ है लेकिन नेपाल के निवासी गोरखा जवानों की सोच पर चीन का जादू चढ़ने लगा है। इसी प्रभाव के कारण शायद भारत सरकार ने अग्निवीरों की नियुक्ति के मामले में भी नेपाल सरकार से कोई वार्ता नहीं की।

गोरखा जवानों की जरूरत

इधर, नए सिरे से गोरखा जवानों की जरूरत महसूस की जा रही है जिसकी कमी कुमायूँ और गढ़वाल के जवानों से पूरी की जा रही है। दबी जुबान से सेना के बड़े अफसर भी गोरखा जवानों की लगातार हो रही कमी का जिक्र तो करते हैं मगर खुल कर बोलने में सकुचाते हैं। ऐसे में बेहद जरूरी हो गया है कि भारत सरकार ठोस रणनीति अपनाए क्योंकि खबरों के अनुसार ब्रिटिश सेना के अलावा अब गोरखा नौजवान आहिस्ता-आहिस्ता रूस की फौज में भी शामिल होने लगे हैं। यहां तक कि फ्रांस की ओर से भी गोरखा जवानों की मांग की जाने लगी है। और इस मामले में चीन चुप नहीं रहने वाला। यदि चीन ने इस अवसर का लाभ उठा लिया और अपनी फौज में उसने बाकायदा एक गोरखा रेजिमेंट का गठन कर दिया तो भारत के लिए नए सिरे से सरदर्द की नौबत आ सकती है।

काठमांडू में सत्तारूढ़ हुई पुष्प कमल दहल उर्फ प्रचंड की सरकार के मनोभावों को समझकर भारत सरकार को इस मामले में जल्दी कोई उपाय खोजना होगा। भारतीय फौज में हर रेजिमेंट की अपनी खास पहचान है, हर रेजिमेंट की बहादुरी पर देश को नाज है। साथ ही गोरखा जवानों की बहादुरी पर भी किसी को संशय नहीं है। जरूरत है कि गोरखा रेजिमेंट को और मजबूत किया जाए ताकि वादियों में सुनने को मिले- जय महाकाली, आयो गोरखाली..।