जनता के सवाल

देश की संसद आम लोगों की समस्याओं के समाधान के लिए है। जनहित के मुद्दों की चर्चा के लिए है। लेकिन शासक और विरोधी- दोनों पक्ष की ओर से कोशिश यही होती रहती है कि किसी भी तरह से संसद का समय बर्बाद किया जाए, हंगामा खड़ा किया जाए जिससे कि जनहित के मामलों पर चर्चा से बचा जा सके। यह बड़ी दुःखद स्थिति है।

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कोरोना जैसी महामारी को झेल चुकी भारतीय आबादी अब किसी भी कीमत पर अपने पुराने दिनों की ओर लौटने की कोशिश कर रही है। इसके लिए आम आदमी पहले की तुलना में कहीं ज्यादा मेहनत करने को तैयार लगता है लेकिन उसके पास काम ही नहीं है। ऐसे में बेहतर यही है कि केंद्र और राज्य की सरकारें आपस में मिल-बैठकर लोगों की आजीविका के सवाल पर विचार करतीं। लेकिन देश जिस दिशा में जा रहा है उससे यही लगता है कि केवल वोट बैंक की राजनीति और दलगत फायदे के अलावा किसी भी दल के पास जनता के सवालों का कोई जवाब नहीं है।

जनहित के मुद्दों की चर्चा

यदि देश के राजनीतिक दलों को जरा भी आम आदमी की तकलीफों का ध्यान होता या आम लोगों के आंसू पोंछने की चिंता होती तो कम से कम संसद में जो हंगामा देखा जा रहा है, उससे तौबा कर लिया जाता। सियासी भाषणबाजी और एक-दूसरे की नुक्ताचीनी के लिए सड़क हैं, गलियां हैं, खुले मैदान हैं, टीवी चैनलों का पर्दा है- संसद का पटल नहीं। देश की संसद आम लोगों की समस्याओं के समाधान के लिए है। जनहित के मुद्दों की चर्चा के लिए है। लेकिन शासक और विरोधी- दोनों पक्ष की ओर से कोशिश यही होती रहती है कि किसी भी तरह से संसद का समय बर्बाद किया जाए, हंगामा खड़ा किया जाए जिससे कि जनहित के मामलों पर चर्चा से बचा जा सके। यह बड़ी दुःखद स्थिति है।

सबको पता है कि संसद का यह अधिवेशन कहीं न कहीं अगले आम चुनावों की ओर देश को ले जाने की दिशा में एक ठोस कदम है। लेकिन अगले चुनाव की तैयारी में जुटे सियासी दलों को लगता है कि संसद से होने वाले सियासी प्रचार में कम से कम वे दूसरे दलों से पीछे नहीं रह जाएं। इसीलिए कुछ लोग जानबूझकर तो कुछ नहीं चाहकर भी संसद को ही प्रचार का माध्यम बनाने लगे हैं। एक ओर एनडीए का गठबंधन है तो दूसरी ओर इंडिया गठबंधन। एनडीए की मणिपुरी सरकार में जिस तरह की घृणित गतिविधियां हुई हैं, उनकी खुद प्रधानमंत्री ने भी निंदा की है।

संसद का एक-एक पल कीमती

महिलाओं की अस्मिता से खेलने वालों को किसी भी कीमत पर माफ नहीं किया जा सकता। लेकिन एनडीए की ओर से मणिपुर के अलावा राजस्थान, बिहार और पश्चिम बंगाल में कथित तौर पर हो रहे महिला अत्याचार को ही ढाल बनाया जा रहा है। कहने को सरकार की ओर से मणिपुर मामले में चर्चा कराने का दावा किया जाता है लेकिन एक समस्या के समाधान के बदले दूसरी समस्या का उल्लेख किया जाता है। विपक्ष को भी इस बात का ध्यान रखना होगा कि संसद का एक-एक पल देश के लिए कीमती होता है क्योंकि वहां व्यक्तिगत शिकवा-शिकायतों की नहीं, जनहित के मुद्दों पर चर्चा की जरूरत है। दलगत राजनीति के वशीभूत नेता आपस में लड़ें, एक दूसरे को बुरा-भला कहें-यह अलग बात है लेकिन जनता के हितों की बात भी होनी चाहिए।

यह सही है कि मणिपुर जैसी घटना पूरे देश में कहीं भी हो, उसके खिलाफ ऐसे कदम उठाने चाहिए कि फिर किसी बहू-बेटी से कोई दुष्कर्म करने की हिमाकत नहीं कर सके। लेकिन कठोर कार्रवाई करने या दोषियों को दंडित करने के प्रावधानों पर चर्चा से इतर संसद में एक-दूसरे के गठबंधन को खोखला साबित करने की कोशिश को कभी भी देशहित में नहीं कहा जा सकता। इसमें एक बात सत्तारूढ़ दल के लिए जरूरी है। जो सत्ता में होते हैं, संसद उन्हें ही हर हाल में चलानी होती है। विपक्ष को कैसे सहमत करके आगे विमर्श के लिए चलना है- इसकी तलाश सत्तारूढ़ दल को करनी होगी, विपक्ष को नहीं।