झूठी ही तसल्ली दो

कारोबार करने में कोई बुराई नहीं है। लेकिन अगर एक्सपायर हो चुकी दवाओं को नए सिरे से लेबल लगाकर लोगों तक पहुंचाया जाए तो इससे बड़ा गुनाह भला क्या हो सकता है।

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एक अंग्रेजी कहावत है- फिशिंग इनटु ट्रॉबल्ड वाटर अर्थात माहौल को बिगाड़ कर अपना उल्लू सीधा करने का खेल खेलना। कुछ लोगों की फितरत होती है कि वे दूसरों की नजर किसी तीसरी समस्या की ओर फेर कर अपना काम कर रहे होते हैं। इन्हें वक्त का सही अंदाजा होता है। संयोग से अगर पकड़े गए तो अपने बचने की राह भी पहले से ही तैयार रखा करते हैं। इन्हें ही समाज में ज्यादातर लोग सफल आदमी कहा करते हैं। ऐसे ही कुछ लोगों का पता चला है। पता भी शायद नहीं चल पाता लेकिन बंगाल के राज्यपाल सीवी आनंद बोस ने ऐसे ही कुछ लोगों की कलई खोलने की कोशिश की है।

दवाओं का कारोबार

हो सकता है कि ऐसे लोगों पर आगे कोई कार्रवाई वगैरह भी होने की गुंजाइश बने, लेकिन अभी इसकी संभावना कम ही नजर आती है। घटना यह है कि कुछ व्यवसाइयों की टीम है जो दवाओं का कारोबार करती है। कारोबार करने में कोई बुराई नहीं है। लेकिन अगर एक्सपायर हो चुकी दवाओं को नए सिरे से लेबल लगाकर लोगों तक पहुंचाया जाए तो इससे बड़ा गुनाह भला क्या हो सकता है।

प्रसंगवश उल्लेखनीय है कि पूर्वी भारत के सिंहद्वार के रूप में कोलकाता को माना जाता है। यहां बहुत सारी फार्मा कंपनियों के आउटलेट हैं अथवा उनके पूर्वी क्षेत्र के वितरक कोलकाता से संबंधित हैं। ऐसे में वृहत्तर बड़ाबाजार के इलाके में कुछ ऐसे प्रतिष्ठान हैं जहां करोड़ों-अरबों रुपये मूल्य की दवाएं एक साथ डंप की जाती हैं। यहीं से इनकी आपूर्ति पड़ोस के झारखंड, बिहार, ओडिशा, असम, त्रिपुरा, नगालैंड, मेघालय, मणिपुर या अरुणाचल प्रदेश तक की जाती है। ऐसे में अगर असली दवाओं की जगह नकली दवाओं को ही डाल दिया जाए तो इससे आम आदमी तक किसी बीमारी को पहुंचने में देर तो नहीं होगी।

इस तरह के कारोबार से जुड़े लोगों को कम लागत में मोटी कमाई हासिल हो जाती है लेकिन जिन लोगों तक ये दवाएं पहुंचाई जाती हैं, उन पर क्या बीतेगी। जाहिर है कि आज का इंसान वैसे भी बीमारियों से जर्जरित हो चला है। प्राकृतिक भोज्य की जगह अप्राकृतिक भोजन का आदी हो गया है। उसे अगर दवाओं की खेप भी नकली भेजी जाए तो बेचारे के पास तड़प-तड़प कर मरने तथा संबंधित डॉक्टरों पर गुस्सा उतारने के सिवा कुछ हाथ नहीं लगने वाला।

बाहुबलियों की मजबूरी

सरकारी ड्रग कंट्रोलरों की हालत भी लालफीताशाही वाली ही हो गई है। कोई किसी बात की परवाह किए बगैर अपनी राह चला जा रहा है। सरकार के पास अपनी कुर्सी बचाने, आंदोलन करने तथा अगले चुनाव में अधिक से अधिक वोट हासिल करने की टेंशन है। उसे इस बात की चिंता रहती है कि अगली बार अधिक से अधिक सीटें हासिल करने के लिए किन-किन बाहुबलियों को अपने खेमे में शामिल कराया जाए। और बाहुबलियों की मजबूरी यह है कि उन्हें बेईमान कारोबारियों से मोटा चंदा वसूलना होता है।

अब ऐसा कारोबारी मोटी कमाई नहीं करेगा तो बाहुबलियों की पूजा कैसे करेगा। मतलब यह कि पूरा का पूरा सिस्टम ही एक ऐसे चक्र से घिरा हुआ है जिसमें कोई किसी के प्रति कहीं से भी जिम्मेवार नहीं है- ऐसे में ट्रॉबल्ड वाटर देखकर फिशिंग करने वाले पीछे कैसे रहेंगे। इसके बावजूद बंगाल के राज्यपाल ने अगर ऐसे कारोबारियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने का भरोसा दिलाया है तो कुछ उम्मीद तो बँधती ही है। और वैसे भी आम आदमी कल की बेहतरी की उम्मीद पर ही तो जी रहा है। कहा भी गया है-

झूठी ही तसल्ली दो, उम्मीद तो बँध जाए।

धुँधली ही सही लेकिन, एक शमां तो जल जाए।।