मनमर्जी बनाम जनमर्जी
राहुल को अयोग्य ठहराये जाने के तुरंत बाद उन पर सरकारी बंगला खाली कराने का जो दबाव बनाया गया तथा जिस तरह की खबरें तब निकल कर आने लगी थीं, उनसे यही लगता था कि शायद केंद्र सरकार किसी व्यक्तिगत खुन्नस के कारण ही राहुल को आनन-फानन में उनके बंगले से निकालने पर तुली हुई थी।
राहुल गांधी का अचानक संसद से बाहर किय़ा जाना और फिर नाटकीय तरीके से उनको संसद में प्रवेश देना- इन दो घटनाओं में सरकार की मंशा क्या रही है, इस बारे में हो सकता है कि लोगों की धारणा अलग-अलग बने। कुछ लोग यही कहेंगे कि राहुल की बदजुबानी की सजा के तौर पर उन्हें संसद से बाहर जाने की सजा मिली थी जबकि कुछ लोगों का इशारा यह भी हो सकता है कि सरकार ने जान-बूझकर किसी न किसी तरह से राहुल को बाहर का रास्ता दिखाने का प्रयास किया था। लोगों की सोच अलग है, कानून और संविधान उससे अलग है।
मोदी सरनेम के बारे में राहुल गांधी की गलतबयानी के कारण ही उन पर मुकदमा चला और उन्हें सजा सुनाई गई। जनप्रतिनिधि कानून के प्रावधानों के तहत ही उन्हें संसद की सदस्यता के अयोग्य ठहरा दिया गया। उनके चुनाव लड़ने की संभावना भी क्षीण हो चुकी थी। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के फैसले से राहुल को नई ऊर्जा मिली है तथा जिस संसद से उन्हें चार महीने पहले लगभग अपमानित होकर निकलना पड़ा था, उसमें उनकी वापसी हो गई है। यह राहुल के साथ ही कांग्रेस के लिए भी सुखद खबर है।
राहुल की संसद में वापसी
लेकिन एक बात देश के ज्यादातर लोगों को सालती रहेगी। राहुल को अयोग्य ठहराये जाने के तुरंत बाद उन पर सरकारी बंगला खाली कराने का जो दबाव बनाया गया तथा जिस तरह की खबरें तब निकल कर आने लगी थीं, उनसे यही लगता था कि शायद केंद्र सरकार किसी व्यक्तिगत खुन्नस के कारण ही राहुल को आनन-फानन में उनके बंगले से निकालने पर तुली हुई थी। अब राहुल की संसद में वापसी हुई है तो क्या सरकार की ओर से अपनी नीतियों पर अफसोस जताया जाएगा। शायद ऐसा नहीं किया जाएगा क्योंकि राजनीति में आज के लोग शिष्टाचार भूलते जा रहे हैं। एक नई इबारत लिखी जा रही है जिसमें नफरत के बीज डाले जा रहे हैं।
जल्दबाजी का परिचय
निचली अदालत में राहुल को अगर दोषी ठहरा दिया गया या सजा सुना दी गई तब भी उनके पास शीर्ष अदालत का दरवाजा खटखटाने का विकल्प तो बचा ही था। कम से कम राहुल का बंगला खाली कराने से पहले केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में राहुल पर आने वाले फैसले का इंतजार तो कर ही लिया होता। लेकिन जिस तरह की जल्दबाजी का परिचय दिया गया तथा जिस तरह का व्यवहार किया गया-उससे कहीं न कहीं सरकार की मंशा पर सवाल जरूर खड़े होते हैं। लोकतंत्र में सरकारों का आना-जाना लगा रहता है। जनता की मर्जी से लोग आते हैं। जनता की पसंद के आधार पर ही सरकारें बनती हैं।
भारतीय लोकतंत्र की परंपरा
किसी भी चुनी हुई सरकार को देश की जनता पांच साल का समय देती है। उस सरकार को यह भूलना नहीं चाहिए कि पांच साल बाद फिर उसे जनता के दरबार में जाना है। अपने विरोधियों के साथ भी मित्रता का व्यवहार करना भारतीय लोकतंत्र की परंपरा रही है। खुद इंदिरा गांधी और अटलजी के संबंधों के बारे में भी लोग जानते हैं। ऐसे में भले ही अदालती आदेश के कारण ही राहुल को जहमत झेलनी पड़ी है मगर बंगला प्रकरण से महसूस जरूर होता है कि सरकार भी जल्दबाजी में थी। इससे सरकार को बचने की जरूरत है क्योंकि भारत एक लोकतांत्रिक देश है और लोकतंत्र में फैसले मनमर्जी से नहीं बल्कि जनमर्जी से लिए जाने चाहिए। राहुल की संसद में वापसी अभी भावी सियासत की कौन-सी तस्वीर पेश करने वाली है-यह देखना दिलचस्प होगा।