न होता तो बेहतर था

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बंगाल के पंचायत चुनाव सम्पन्न हो गए। सबको जो उम्मीद थी, नतीजे भी कमोबेश वैसे ही आए हैं। लेकिन कुछ सवाल ऐसे जरूर उभरे हैं जिनका जवाब वक्त जरूर मांगेगा। आज नहीं तो कल यह सवाल बार-बार बंगाल के शासकों को भी परेशान करेगा। सवाल यह कि क्या जो कुछ भी चुनाव के दौरान हुआ वह जरूरी था? क्या इतने सारे लोगों की नाहक मौत जरूरी थी। क्या चाहकर भी किसी कीमत पर हारे या जीते दल के लोग मारे गए लोगों में से किसी को दूसरी दुनिया से लौटा सकेंगे!

क्या जिनके घर वाले पंचायती चुनाव की हिंसा में मार दिए गए, उनके परिजनों को किसी भी दल के लोग आज देखने को तैयार हैं। इसका जवाब शायद आज नहीं है। कल भी नहीं ही होगा। बहुत हुआ तो जिस दल के नाम पर जिस मरे हुए व्यक्ति की पहचान कायम की जाएगी, उसकी एक शहीद वेदी बना दी जाएगी जिस पर गाहे-बगाहे गली मुहल्ले के पालतू जीव क्रिया-कर्म कर दिया करेंगे। जिस दल से जिसका संबंध रहा होगा उस दल के लोग साल में किसी एक दिन उसकी वेदी पर फूल-माला चढ़ा जाएंगे। इससे ज्यादा कुछ नहीं हो सकता। लेकिन सवाल फिर वही उभरेगा कि इतनी हिंसा क्यों? लोकतंत्र में जहां सबको चुनाव में शामिल होने की छूट है, सबको मतदान करने का हक हासिल है-उस हक को छीन लेना कहीं से भी स्वस्थ लोकतंत्र का प्रतीक नहीं कहा जा सकता। सबसे खराब घटना यह रही कि खुद चुनाव आयोग की भूमिका पर सवाल खड़े हो गए और केंद्रीय बलों को बंगाल में लाकर भी उन्हें बूथों की सुरक्षा में नहीं लगाया जा सका।

इसमें राज्य चुनाव आयोग की जितनी भी मीडिया में निंदा हुई है, उससे असहमत नहीं हुआ जा सकता क्योंकि लोकतंत्र में संविधान के तहत सारे अधिकार चुनाव आयोग को ही हासिल हैं। बंगाल के चुनाव आयुक्त को शायद वह बात याद नहीं रही होगी जिसमें टी.एन.शेषन ने तमाम सरकारी दबावों के बावजूद सबका कोपभाजन होना कबूल किया लेकिन लोकतंत्र की नई इबारत ही लिख डाली। राजीव सिन्हा से भी बंगाल के लोगों को काफी अपेक्षा जरूर थी, जो पूरी नहीं हो सकी। चुनावी हिंसा में मारे गए लोग किस दल से थे, यह महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण यह है कि ये सारे लोग कहीं बाहर से नहीं आए थे। इसी धरती के लाल थे तथा लोकतंत्र को मजबूत करने की कोशिश में जुटे हुए थे। उन्हें किसी दल विशेष के साथ जोड़कर देखना सही नहीं है। और अंत में पुलिस तथा उन भाड़े के गुंडों की बात भी आती है जिन्होंने जानबूझकर राज्य को बदनाम करने का काम किया है।

सबको पता है कि 2024 के आम चुनाव की तैयारी हो रही है जिसमें मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के कथनानुसार कई मोदी विरोधी दल एक मंच पर आ डटे हैं। ऐसे में ममता बनर्जी को मोदी के बदले पीएम का चेहरा बनाया जाना लगभग तय हो चुका है। लेकिन पंचायत स्तर के चुनाव में जिस तरह लोगों की हत्याएं की गई हैं, उनसे कहीं न कहीं तृणमूल कांग्रेस की छवि अखिल भारतीय स्तर पर खराब हुई है। ममता की राह में रोड़े अटकाने वाले यही दलील रखेंगे कि जिन्होंने अपने राज्य में कानून का शासन पूरी तरह स्थापित नहीं किया है, उनसे पूरे भारत में कानून के शासन की अपेक्षा कैसे होगी। कुल मिलाकर पंचायती चुनाव के नतीजों से तृणमूल कांग्रेस को फिलहाल जीत तो मिली है मगर सियासी और नैतिक तौर पर यह जीत कितनी सार्थक है, इसका फैसला आने वाला वक्त करेगा।