संविधान की जरूरत
दुनिया अभी पूरी तरह किसी एक शासन पद्धति को अपना नहीं सकी है और शायद इसकी संभावना भी नहीं बन सकती। वजह यह है कि जो भी जहां का शासक बन जाता है, वह खुद को ईश्वर ही मान बैठता है और उसकी मर्जी ही सर्वोपरि हो जाती है।
दुनिया में जब से उपनिवेशवाद का सफाया हुआ है तब से इंसानी सोच में भी बदलाव आया है। बदलाव की हालत आज यह है कि तानाशाही या राजशाही का दौर भी समाप्त हो गया है और ज्यादातर देशों में लोकशाही या लोकतंत्र की स्थापना हुई है। शीतयुद्ध के बाद से दुनिया और तेजी से आगे बढ़ी है। लेकिन कई जगह बुनियादी सवाल आज भी अटके हुए हैं। लोकतंत्र की मांग करने वाली चीन की आबादी पर थ्यानमेन चौक पर किस तरह वहां की सरकार ने गोलियां दागी थीं, यह दुनिया देख चुकी है।
मर्जी ही सर्वोपरि
अफगानिस्तान में बीस सालों तक लोकशाही की स्थापना करने की कोशिश में लगा अमेरिका तालिबानी लड़ाकों के आगे किस तरह हथियार डालकर भाग खड़ा हुआ था, इसे भी देखा गया है। मतलब यह कि दुनिया अभी पूरी तरह किसी एक शासन पद्धति को अपना नहीं सकी है और शायद इसकी संभावना भी नहीं बन सकती। वजह यह है कि जो भी जहां का शासक बन जाता है, वह खुद को ईश्वर ही मान बैठता है और उसकी मर्जी ही सर्वोपरि हो जाती है। किसी ने विरोध किया तो उसे देशद्रोही करार दिया जाता है।
कुछ इसी राह पर भारत का मित्र देश इजरायल भी आजकल चल पड़ा है। कहने को तो तेल अबीब में लोकशाही है लेकिन नई सरकार के प्रधानमंत्री ने अब नये सिरे से प्रशासन को चलाने का संकल्प ले लिया है। यही वजह है कि यहूदी बहुल यहां की आबादी सड़कों पर उतर आई है तथा किसी भी सूरत में फिलहाल जो कानूनी बदलाव किए जा रहे हैं, उसके विरोध के लिए कमर कस ली है। लेकिन बेंजामिन नेतन्याहू अपनी जिद पर अड़े हैं।
दरअसल इस्लामी जगत से लंबी लड़ाई के बाद यहूदियों को उनका होमलैंड इजरायल मिला है जहां एक स्वतः प्रस्तुत कानून के जरिए ही सामाजिक संचालन के साथ राजनीतिक व प्रशासनिक संचालन भी होता रहा है। दरअसल सदियों की लड़ाई के बाद मिले होमलैंड की हर हाल में रक्षा के लिए प्रत्येक नागरिक हमेशा कृतसंकल्प रहा करता है। लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि यहां कोई लिखित संविधान नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप
संविधान लिखा हुआ नहीं होने के कारण प्रशासन के साथ वहां की सुप्रीम कोर्ट सामंजस्य बनाकर चलती है। इसे देशप्रेम, आदर्श और ईमानदारी का ही सबूत माना जाएगा। किंतु मामला बिगड़ा है बेंजामिन नेतन्याहू के फिर से पीएम बनने के बाद। नेतन्याहू पर आर्थिक अनियमितता के आरोप लग चुके हैं। ऐसे आरोपों से खुद को बचाने के लिए ही उन्होंने प्रशासनिक नियमावली में बदलाव करते हुए संसद में एक खास संशोधन विधेयक लाया है। इस विधेयक का विरोध शुरू से ही होता आ रहा है। विधेयक में प्रावधान है कि संसद में पारित कराए गए नियमों में सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप लागू नहीं होगा। मतलब साफ है कि सरकार खुद को निरंकुश बनाना चाह रही है। लोग भी इसी का विरोध कर रहे हैं।
चिंता जरूर बढ़ी है
अब चूंकि यह विधेयक संसद में पारित कर दिया गया है लिहाजा इजरायल के पड़ोसी देशों में इसे लेकर चिंता जरूर बढ़ी है। फिलिस्तीन या ईरान जैसे देशों से इजरायल की तल्खी बढ़ेगी। भारत चूंकि इजरायल का मित्र देश है, लिहाजा कई बार भारत सरकार भी नेतन्याहू के फैसलों से असहज महसूस करेगी। लेकिन कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि जिस तरह दुनिया के ज्यादातर देशों में शासन की सोच बदल रही है, कुछ उसी राह पर इजरायल की सरकार भी चल पड़ी है। ऐसे में जरूरत है एक लिखित संविधान की जिसके आधार पर इजरायल के लोग भी अदालत से इंसाफ की अर्जी लगा सकें। एकनायकतंत्र चला तो यहूदी समुदाय का प्यारा होमलैंड गृहयुद्ध में जीर्ण हो सकता है और शत्रुओं को इससे लाभ होगा।