संसद मौन है

किसी भी मजहब के पीर-पैगंबर या साधु-संतों ने किसी को निखट्टू बनने की सलाह नहीं दी है। लेकिन सियासी हवा देश में कुछ ऐसी बह रही है कि युवाओं को गलत राह पर ले जाने के लिए बाकायदा राजनीतिक सलाह दी जाती है।

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जिस वतन पर सबको नाज है, जिसकी लोग कसमें खाया करते हैं, जो इसी महीने की 15 तारीख को आजादी का जश्न मनाने की तैयारियों में जुटा है- वह कहीं न कहीं आज जख्मों से कराह रहा है। लोग तमाशबीन बने एक-दूसरे का मुंह ताक रहे हैं और सियासतदान अपनी-अपनी रोटी सेंक रहे हैं। उन्हें शायद लगता होगा कि किसी जुम्मन का घर जले या किसी मोहन की झोपड़ी में आग लगे-उनका आशिय़ाना तो सलामत है। लेकिन लोगों को लड़ाकर मुर्दा-मुर्दा का खेल खेलने वाले लोगों को शायद इस बात का इल्म नहीं है कि लोगों से ही तुम्हारी सियासत है, लोगों से ही लोकतंत्र है और लोगों से ही तुम्हारे दरबार सजे हैं। इन लोगों को बचाओ।

सबको भागीदार बनना पड़ेगा

इसके लिए किसी एक दल या किसी खास सरकार की जरूरत नहीं है। इसमें सबको भागीदार बनना पड़ेगा। मणिपुर की आग अभी जल ही रही थी कि हरियाणा के नूंह और गुरुग्राम में भी हिंसा की आग जलने लगी है। आशंका यह भी है कि देखादेखी देश के दूसरे इलाकों में भी कहीं यह आग न फैल जाए। इसके लिए सभी को तुरंत सक्रिय होना होगा।

इसके पहले सरकार तथा अन्य दलों को सोचना होगा कि हिंसा भड़काई क्यों जा रही है। इससे किसका लाभ होने जा रहा है। कुछ लोग ऐसी घटनाओं में आँख मूंदकर विदेशी हाथ होने की बात कह कर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेंगे। बात ऐसी है या नहीं-इस पर विवाद हो सकता है। फिर भी पहला कर्तव्य यही है कि हम अपने गिरेबान में झाँकें। इससे पता चल जाएगा कि हिंसा की असली वजह क्या है। इंसानी हक-हकूक की बातों को दरकिनार रख अगर केवल हम मजहबी गीत गाते रहे तो कल पड़ोसी पाकिस्तान की तरह ही हम भी दुनिया के दूसरे देशों के पास कटोरा लेकर भीख मांगते नजर आएंगे।

आबरू बचाने की कोशिश

किसी भी मजहब के पीर-पैगंबर या साधु-संतों ने किसी को निखट्टू बनने की सलाह नहीं दी है। अध्यवसाय की सीख दी गई है जिससे लोगों के पास काम हो और वे काम में उलझे रहें। लेकिन सियासी हवा देश में कुछ ऐसी बह रही है कि युवाओं को गलत राह पर ले जाने के लिए बाकायदा राजनीतिक सलाह दी जाती है। राम-रहीम के नाम पर, हिन्दू-मुसलमान के नाम पर, मंदिर-मस्जिद के नाम पर या ऊंची जाति-निम्न जाति के नाम पर अथवा आदिवासी-अधिवासी के नाम पर जनता को दिनरात जहरीले भाषणों का प्याला पिलाने वाले नेता हो सकता है कि हिंसा की इस आग से कुछ हासिल कर लें। लेकिन इस मुल्क की आबरू बचाने की कोशिश का अभाव दिख रहा है।

ध्यान रहे कि किसी भी किस्म का दंगा इंसान के भीतर तक घाव भर देता है। समाज इससे लहूलुहान हो जाता है। ये घाव पता नहीं कभी भरते भी होंगे या नहीं। जिन्हें हिंसा की आग को हवा देने में मजा आ रहा है, सवाल उनसे पूछा जा सकता है कि आजादी की लड़ाई के समय जिन वीरों ने हंसते-हंसते फाँसी का फंदा अपने लिए चुना था- क्या उनके बलिदान के साथ आज न्याय हो रहा है।

मगर संसद खामोश है

देश की आबादी को आपस में संकीर्ण विचारों के आधार पर लड़ा रहे नेताओं को क्या एक पल के लिए भी लाला लाजपतराय, भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद या नेताजी सुभाषचंद्र की याद आती है, कदाचित नहीं। क्योंकि अगर सचमुच देश चलाने वालों के जेहन में उन महापुरुषों के बलिदान की गाथा मौजूद होती तो शायद देश की आबरू के साथ घिनौना खेल नहीं हो रहा होता। इधर दंगे चल रहे हैं, हिंसा हो रही है, संसद का सत्र चल रहा है मगर संसद खामोश है। इस प्रसंग में एक बात याद आती है-

एक रोटी बेलता है, दूसरा रोटी खाता है

तीसरा न रोटी बेलता है, न खाता है 

वह रोटी से खेलता है।

पहचानो उसे वह कौन है,

इस देश की संसद मौन है।