शिक्षा की दुकानदारी

बड़ी दुकान के नाम पर फीस के अलावा भी कई अन्य तरीके से अभिभावकों से पैसे ऐंठने की तरकीब आजमाई जाती है। इन सारी घटनाओं को संज्ञान में लेते हुए तथा अभिभावकों की गुहार सुनकर अब कई राज्य सरकारों ने इस दुकानदारी पर रोक लगाने तथा नजरदारी करने की ठानी है।

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आजादी के कुछ दशकों बाद जैसे ही देश में उदारीकरण की बयार चली, वैसे शिक्षा को भी दुकानदारी से जोड़ने का सिलसिला चल पड़ा। इस दुकानदारी का समाज पर क्या असर होगा या बाद की पीढ़ियां किस तरह देश को आगे ले जाएंगी, इसकी चिंता छोड़कर सरकारी नीति केवल कमाऊ बाजार बनाने तक ही सीमित रही। नतीजा यह हुआ कि देखते ही देखते जिसे शिक्षा मंत्री कहा जाता था, वह बाद में मानव संसाधन विकास मंत्री बन गया। मतलब चकरघिन्नी में शिक्षा कहीं खो गई और गोल-गोल भाषा तैयार कर दी गई।

शिक्षा के बाजार का विकास

नतीजतन बड़ी तेजी से शिक्षा के बाजार का विकास हुआ और सरकारी स्कूलों की जगह निजी स्कूलों की संख्या कुकुरमुत्तों की तरह बढ़ी। इन स्कूलों में विद्यार्थियों को क्या सिखाया-पढ़ाया जाता है, इसका विवेचन तो समाज बाद में किया करेगा लेकिन आज सबसे बड़ी समस्या यह है कि जिसकी दुकान जितनी मशहूर है, उसकी फीस भी उतनी ही दमदार है। निजी स्कूलों की फीस को लेकर किसी भी कोने से कोई हायतौबा मचाने की गुंजाइश नहीं थी और सबकुछ सही चल रहा था। लेकिन बीच में आए कोरोना ने सबकी पोल खोल कर रख दी।

कोरोना की मार से जहां एक ओर लोगों की कमाई घटी, वहीं स्कूलों का खर्च बढ़ता गया। इसीलिए जो अभिभावक कोरोना से पहले अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के तथाकथित रसूखदार स्कूलों में पढ़ाने लगे थे, उन्हें अनापशनाप फीस खटकने लगी और मजबूरन उन्होंने अदालत की शरण ली। तब जाकर आम आदमी को समझ में आया कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय में बैठे लोग किस संसाधन का विकास करते रहे हैं।

अभिभावकों को राहत देने की बात

इस बीमारी से लोगों को निजात दिलाने की कोशिश में अदालत ने पहली बार कोरोना काल में ही ब्रेक लगाया जिसमें अभिभावकों को राहत देने की बात थी। लेकिन इसके बावजूद कई राज्यों में चल रहे चेन ऑफ स्कूल्स का रवैया नहीं बदला। कोरोना के तुरंत बाद फीस बढ़ाने की बात आई। फीस बढ़ाने के जरिए ही प्राइवेट स्कूलों में किसी न किसी तरह से अभिभावकों को इस बात का एहसास जरूर कराया जाता है कि उनका बच्चा बड़े स्कूल में पढ़ता है।

बड़ी दुकान के नाम पर फीस के अलावा भी कई अन्य तरीके से अभिभावकों से पैसे ऐंठने की तरकीब आजमाई जाती है। इन सारी घटनाओं को संज्ञान में लेते हुए तथा अभिभावकों की गुहार सुनकर अब कई राज्य सरकारों ने इस दुकानदारी पर रोक लगाने तथा नजरदारी करने की ठानी है। इसी कड़ी में पश्चिम बंगाल सरकार ने भी जल्दी ही विधानसभा में एक कानून बनाने का ऐलान किया है। समझा जाता है कि इस नये कानून से शिक्षा की दुकानदारी पर लगाम कसी जाएगी। इस प्रसंग में मानव संसाधन विकास की दुकानदारी चलाने वाले शिक्षा विभाग के लोगों से कहा जा सकता है कि शिक्षा मंत्री का जमाना ही ठीक था जिसमें सरकारी स्कूलों से निकले बच्चे देश चलाने का माद्दा रखते थे।

सामाजिक तानेबाने को नुकसान

कुछ चुनिंदा निजी स्कूलों को छोड़कर मानव संसाधन के नाम पर हाल के दशकों में खुले स्कूलों में बच्चों को कैसी शिक्षा दी जा रही है, उसकी झलक पाने के लिए देश के क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो पर नजर डाली जा सकती है। मतलब यही है कि विद्यालयों में विद्या की आराधना जहां होती है, वहां देश और समाज की तरक्की तय है लेकिन शिक्षालयों को कमाई का जरिया बनाया गया तो सामाजिक तानेबाने को नुकसान होना तय है। अभिभावकों पर पड़ने वाले आर्थिक बोझ को महसूस कर राज्य सरकार द्वारा कानून बनाने की सोच को साधुवाद दिया जाना चाहिए।