ताकते रह गए सभी

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राजभवन, राज्य सरकार, कलकत्ता हाईकोर्ट, राज्य चुनाव आयोग और राज्य की पुलिस। सबने अपना-अपना रोल अदा किया। कहीं बूथों पर बैलेट बॉक्स की लूट हुई, कहीं किसी को गोली मार दी गई, कहीं किसी महिला की सड़क पर लिटा कर बुरी तरह पिटाई हुई, कहीं गुस्साए लोगों ने बैलेट पेपरों को बूथ में ही फूंक दिया। और शाम होते-होते मरने वालों की संख्या गैरसरकारी तौर पर 13 तथा सरकारी तौर पर तीन बता दी गई। खेल हो गया।

खेल लोकतंत्र-लोकतंत्र का हुआ। पंचायत चुनाव संपन्न हुए। वोटों की गिनती अभी बाकी है। जो सिलसिला 34 सालों तक वाम शासन में चला, उसे मरने नहीं दिया गया। इसके लिए सभी पक्षों को बधाई दी जानी चाहिए। पूरे भारत की तस्वीर भले बदल जाए, बंगाल की परंपरा कायम रहनी चाहिए। भले कर्नाटक में विधानसभा चुनाव कराने वाली सरकार हार कर भी किसी को एक थप्पड़ रसीद नहीं कर सकी लेकिन पश्चिम बंगाल के चुनावी समर में खून जरूर बहना चाहिए। इस मामले में बंगाल सबसे आगे है। यहां तो कॉलेजों में छात्र संघ के चुनाव में भी खून बहता है तो फिर पंचायत चुनाव में खून बहना बुरा नहीं है। कुछ लोग जरूर हायतौबा मचा रहे हैं। इन्हें आदत ही पड़ चुकी है हर बात पर हंगामा मचाने की। ऐसे लोगों के लिए बंगाल के चुनाव आयुक्त ने एक बड़ी सही बात कही है।

खून के धब्बे

जनाब राजीव सिन्हा का कहना है कि तैयारी हमने हर तरह की कर ली थी लेकिन किसे कौन कब गोली मारेगा- भला इसकी नजरदारी कैसे की जा सकती है। बिल्कुल सही फरमाया है। राज्यपाल उन्हें पहले से ही कहते आ रहे थे कि आयुक्त महोदय मैंने ही आपको नियुक्त किया है। हंगामा बंद कराइये। हंगामा बंद नहीं हुआ तो आपके हाथों में इंसानी खून लगा होगा। खून के धब्बे भी इतने गहरे होंगे कि गंगा का सारा पानी उन धब्बों को धो नहीं सकेगा।

लेकिन शायद राजीव सिन्हा को लगा था कि राज्य पुलिस ही सारा काम निपटा लेगी। पंचायत चुनाव कोई इतना बड़ा आयोजन नहीं जिसके लिए केंद्रीय बलों को बुलाया जाए। बाद में अदालती हस्तक्षेप से मजबूर होकर राजीव सिन्हा ने 22 कंपनी केंद्रीय बलों की मांग की थी। अदालती दबाव जैसे-जैसे बढ़ा चुनाव आयोग की परेशानी भी वैसे-वैसे बढ़ी। बाद में केंद्र से 800 कंपनी से अधिक केंद्रीय जवानों को मांगा गया। लेकिन राज्य चुनाव आयोग को पता था कि एक लाख जवानों को भी यहां बुला लिया जाए तब भी हंगामा तो होगा ही। वजह यह है कि कानूनन आयोग को ही मतदान की सारी व्यवस्था करनी होती है। इसमें राज्य पुलिस के साथ ही केंद्रीय बलों को भी तैनात करने की बात आती है। लिहाजा केंद्रीय जवानों को बूथों से अलग रख दिया गया।

इतना सारा नाटक क्यों

सवाल यह उठता है कि अगर चुनाव आयुक्त को बंगाल पुलिस पर ही भरोसा था और केंद्रीय बलों को बूथों से बाहर ही रखना था तो फिर इतना सारा नाटक क्यों किया गया। दूसरा सवाल यह भी है कि जिस बंगाल पुलिस के बूते चुनावी वैतरणी पार करने की सोची गई थी, उसके जवान भी बूथों से गायब क्यों थे। तीसरा सवाल आयुक्त से किया जा सकता है कि पुलिस वाले और मतदान कर्मचारी गांव वालों से रो-रो कर अपने जान की भीख क्यों मांग रहे थे। शायद इन सवालों का जवाब कागजी भाषा में चुनाव आयोग की ओर से दे भी दिया जाए मगर यह सवाल हमेशा अनुत्तरित रह जाएगा कि चुनावी हिंसा में मारे गए लोगों का कसूर क्या इतना ही नहीं था कि वे बंगाल के नागरिक थे और लोकतंत्र की मजबूती के यज्ञ में शामिल होने की कोशिश कर रहे थे। इस पाप का भागी कौन होगा- जवाब वक्त पर छोड़ना चाहिए।