सच को मिली मंजूरी

नोबेल कमिटी ने अर्थशास्त्र के क्षेत्र में इस वर्ष का नोबेल पुरस्कार जिसे दिया है, उनका नाम क्लॉडिया गोल्डिन है तथा उन्होंने श्रम के बाजार में स्त्रियों की भूमिका की गहन समीक्षा के बाद अपना प्रबंध पेश किया है। उनका मानना है कि शिक्षा से लेकर हर मामले में पुरुषों की बराबरी करने के बावजूद ऊंचे पदों पर महिलाओं के साथ पारिश्रमिक के मामले में दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाता है।

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दुनिया के हर समाज में इस बात पर बहस होती रही है कि महिला और पुरुषों में से प्रधानता किसे दी जाए। इसमें दुनिया के नामी-गिरामी विद्वान भी आपस में बँटे हुए रहे हैं लिहाजा किसी को पुरुषवादी तो किसी को महिलावादी सोच का कायल करार दिया जाता रहा है। इस झमेले को जल्दी लोग अपने पास तक फटकने नहीं देते। हां, इतना जरूर है कि कुछ खास मुल्कों में तथा खास कबीलों में महिलाओं की प्रधानता की रस्म जरूर रही है- लेकिन वह भी नाममात्र की। मगर इन विवादों से अलग नोबेल कमिटी ने अब यह मंजूरी दे दी है कि प्रधानता किसकी है तथा विश्व समुदाय में अबतक किस वर्ग की उपेक्षा होती रही है।

श्रम-बाजार में महिलाओं के साथ भेदभाव

दरअसल नोबेल कमिटी ने अर्थशास्त्र के क्षेत्र में इस वर्ष का नोबेल पुरस्कार जिसे दिया है, उनका नाम क्लॉडिया गोल्डिन है तथा उन्होंने श्रम के बाजार में स्त्रियों की भूमिका की गहन समीक्षा के बाद अपना प्रबंध पेश किया है। उनका मानना है कि शिक्षा से लेकर हर मामले में पुरुषों की बराबरी करने के बावजूद ऊंचे पदों पर महिलाओं के साथ पारिश्रमिक के मामले में दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाता है। उनके शोध से ही इस बात की पुष्टि हो जाती है कि पुरुषों के बराबर या उनसे अधिक मेधा रखने के बावजूद श्रम के बाजार में महिलाओं के साथ भेदभाव किया जाता है।

उनके शोध को नोबेल कमिटी ने मंजूरी देकर दुनिया की लगातार तथाकथित विकसित हो रही सभ्यता को आईना दिखा दिया है। इस बात पर हो सकता है कि कुछ पुरुषवादी संगठनों की ओर से व्यंग्य वाण भी चलाए जाएं लेकिन हकीकत को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। भारतीय परिप्रेक्ष्य में भी इस बात पर गौर किया जा सकता है। भारत तो वैसे भी पुरुष प्रधान समाज वाला देश बन गया है। यह बात दीगर है कि भारत मातृ पूजक भी है लेकिन जहां सामाजिक बराबरी की बात आती है, तुरंत समाज के कुछ तथाकथित कद्दावर लोगों का अहं जाग जाता है और महिलाओं को दूसरी श्रेणी के दर्जे में शामिल कर लिया जाता है।

परिश्रम करने का मौका

क्लॉडिया गोल्डिन ने उस महिला के परिश्रम की बात भी की है जो अपने पति के साथ ही दफ्तरों में काम करती है लेकिन उसे दफ्तर के अलावा घर के काम भी करने होते हैं। घर के काम में बच्चों की परवरिश तथा अन्य घरेलू काम के कारण उन्हें दफ्तर में उतना परिश्रम करने का मौका नहीं मिलता जितना पुरुष को। ऐसे में पुरुष को एक ही काम के लिए तरह-तरह का वजीफा दिया जाता है जबकि महिला के परिश्रम को बेकार समझ लिया जाता है।

इसी विषमता की ओर गोल्डिन ने इशारा किया है, जिसे नोबेल कमिटी ने भी कबूल करके दुनिया के श्रम बाजार में परिवर्तन के लिए दरवाजा खोल दिया है। इस बात की उम्मीद की जा सकती है कि श्रम के बाजार में नए बदलाव आएँगे तथा महिलाओं की आर्थिक हालत में सुधार की दिशा में ठोस कदम उठाए जाएंगे। इससे दुनिया के उन देशों में भी महिलाओं के बारे में हो सकता है कि धारणा बदले, जहां उन्हें केवल पैरों की जूती या इस्तेमाल की वस्तु अथवा बच्चा जनने की मशीनें समझा जाता है।