एक अजीबोगरीब गलती

संसद में जारी किए गए सरकारी बयान से ही पता चलता है कि देश के सत्रह हजार सात सौ करोड़ रुपये खर्च करके दो हजार रुपये के नोटों को छापना और बाद में बंद कर देना कोई बहुत सराहनीय काम नहीं रहा क्योंकि इससे जनता की गाढ़ी कमाई के पैसे बर्बाद हुए। समस्या ज्यों की त्यों बनी रह गई।

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संसद के चालू सत्र के दौरान प्रश्नोत्तर सरकार की ओर से देने की परिपाटी रही है। सवालों के जवाब के तहत इस बात का पता चला है कि 2016 के नवंबर महीने में अचानक प्रधानमंत्री ने पांच सौ और एक हजार रुपये के पुराने नोटों को तत्काल प्रभाव से बंद करने की जो घोषणा की थी, उसकी समीक्षा के तौर पर देश को क्या हासिल हुआ है। सरकार की ओर से बताया गया कि पुराने नोटों को प्रचलन से बाहर करने के कारण बाजार में तरलता की जो कमी आई थी, उसे पूरा करने के लिए तेजी से दो हजार रुपये के नोटों को छापना शुरू किया गया। यही नहीं, दो हजार रुपये के नोटों का आकार चूंकि प्रचलन में मौजूद नोटों की तुलना में थोड़ा अलग था, इसीलिए एटीएम के ट्रे भी अफरातफरी में ही बदले गए।

इतनी मात्रा में कालाधन कैसे

इस दौरान सरकार को प्राप्त आंकड़ों के अनुसार कुल सत्रह हजार सात सौ करोड़ रुपये खर्च करने पड़े थे। इतनी बड़ी राशि खर्च करने के बावजूद हाल ही में उन दो हजार रुपये के नोटों को प्रचलन से बाहर करने का भारतीय रिजर्व बैंक ने फैसला कर लिया है तथा लगभग 97 फीसदी दो हजार रुपये के नोट वापस भी हो चुके हैं। अब सवाल यह उठता है कि जिन समस्याओं को लेकर कभी अचानक पांच सौ और हजार रुपये के पुराने नोटों को बंद कर दिया था, क्या उन समस्याओं से देश को निजात मिल चुकी है। अगर ऐसा ही है तो फिर इतनी मात्रा में कालाधन कैसे हासिल हो रहा है।

पुराने नोटों को बंद करने का फैसला

तब सरकार ने कहा था कि बाजार में काला धन और नकली नोटों की मौजूदगी के कारण ही पुराने नोटों को बंद करने का फैसला लिया गया था। लेकिन सरकारी आंकड़ों के आधार पर ही बताया गया कि प्रचलन में 2016 में जो भी पुराने पांच सौ या एक हजार रुपये के नोट थे, उनमें से 90 फीसदी से भी ज्यादा सरकारी कोष में जमा हो चुके हैं। अब यदि इतनी मात्रा में पुराने नोट सरकार ने वापस ही कर लिए तो फिर काला धन कहां गया।

और यदि काला धन कुछ लोगों ने सरकारी तंत्र से मिलकर सफेद कर लिया तो फिर करोड़ों लोगों को कतार में खड़ा करने की क्या जरूरत थी। सरकारी नीतियां बनाने वालों से पूछा जा सकता है कि इस कदम से क्या देश में नकदी के अभाव को दूर कर दिया गया। सच तो यही है कि नकदी का संकट अभी भी बना हुआ है तथा जिस डिजिटल लेनदेन पर जोर देने की बात कही जा रही है, वह भी प्रत्याशित नतीजे अभी तक नहीं दे सकी है।

समस्या ज्यों की त्यों

संसद में जारी किए गए सरकारी बयान से ही पता चलता है कि देश के सत्रह हजार सात सौ करोड़ रुपये खर्च करके दो हजार रुपये के नोटों को छापना और बाद में बंद कर देना कोई बहुत सराहनीय काम नहीं रहा क्योंकि इससे जनता की गाढ़ी कमाई के पैसे बर्बाद हुए। समस्या ज्यों की त्यों बनी रह गई। सरकार के नीति निर्धारकों से पूछा जा सकता है कि नोटबंदी से देश को क्या हासिल हुआ। और अगर कुछ हासिल ही नहीं हो सका या जिस मकसद को ध्यान में रखकर नोटबंदी हुई, उसका नतीजा नहीं मिला तो फिर ऐसा कदम किस मकसद से उठाया गया। इसके लिए दोषी किसे ठहराया जाए।