इंसाफ का इंसाफ

गनीमत यही रही कि न्यायपालिका ने खुद की गरिमा कायम रखने पर जोर दिया जिससे देश की आम आबादी को आज कार्यपालिका या विधायिका की तुलना में न्यायपालिका पर अधिक भरोसा है। लेकिन यह भरोसा भी कभी-कभी धूमिल होने लगता है जब किसी अदालत के फैसले को कोई दूसरी अदालत गलत करार दे देती है।

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लोकतंत्र को सही तरीके से चलाने के लिए भारत में संविधान की रचना हुई। संविधान के तीन प्रमुख अंगों में कार्यपालिका, न्यायपालिका तथा विधायिका को शामिल किया गया है। संविधान के रचनाकारों की यह सोच थी कि विधायिका की ओर से जनहित के मुद्दों के समाधान के लिए कानून बनाए जाएंगे, जिनका अनुपालन कार्यपालिका करेगी। उन कानूनों का सही ढंग से पालन हो रहा है या नहीं, इसकी विवेचना के लिए न्यायपालिका की अवधारणा तैयार हुई। इसी ढाँचे पर भारत का लोकतंत्र लगातार आगे बढ़ता रहा है। कालांतर में देखा गया कि कुछ ऐसे राजनेता भी हुए जिन्होंने कानून को अपना निजी सामान समझ कर इस्तेमाल करना चाहा।

न्यायपालिका पर अधिक भरोसा

गनीमत यही रही कि न्यायपालिका ने खुद की गरिमा कायम रखने पर जोर दिया जिससे देश की आम आबादी को आज कार्यपालिका या विधायिका की तुलना में न्यायपालिका पर अधिक भरोसा है। लेकिन यह भरोसा भी कभी-कभी धूमिल होने लगता है जब किसी अदालत के फैसले को कोई दूसरी अदालत गलत करार दे देती है। अभी देश में ताजातरीन दो मामले इस तरह के सामने आए हैं जिनसे लोगों का भरोसा कानून के प्रति भी धूमिल होने की आशंका बनी है।

पहली घटना पश्चिम बंगाल की तथा दूसरी उत्तर प्रदेश की है। पश्चिम बंगाल के कामदुनी में एक युवती के साथ पाशविक अत्याचार हुआ था। उसकी नृशंसतापूर्वक हत्या की गई थी। बाद में निचली अदालत में सुनवाई के तहत अदालत को लगा कि अपराध जघन्य है इसलिए अभियुक्तों को फांसी की सजा सुनाई गई। निचली अदालत में जिन्हें फांसी होनी थी, ऊपरी अदालत अर्थात कलकत्ता हाईकोर्ट में आने पर उन्हें सजा से मुक्त कर दिया गया। इससे सभी हैरत में हैं। मामले को फिर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के लिए पेश किया जा रहा है।

दूसरा मामला उत्तर प्रदेश के नोएडा से सामने आया है जिसे निठारी कांड कहा जाता है। इसमें दो लोगों को निचली अदालत ने घृणित अपराध के मामले में दोषी करार देकर फांसी की सजा सुनाई थी लेकिन इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक की सजा माफ कर दी है। इन पर कम उम्र की बालिकाओं से दुष्कर्म के बाद उनकी लाशों को नोंच-नोंच कर खाने का आरोप लगा था। कई युवतियों की हड्डियां भी आरोपित के घर के पीछे के एक कुएं से बरामद हुई थीं। लेकिन हाईकोर्ट ने इन्हें सजामुक्ति दे दी है।

संविधान यही कहता है

ऐसे में सवाल यही खड़ा होता है कि आखिर ऐसा क्यों हो जाता है। इसके कई संभावित जवाब हो सकते हैं। पहला जवाब तो यही है कि अपराधियों की पहुंच सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों से हुआ करती है, जिसके कारण पुलिस चाह कर भी आरोपितों के पुट्ठे पर हाथ नहीं रख पाती। इसके अलावा कई बार पुलिस की मुट्ठी गरम कर दी जाती है जिससे समय बीतने के साथ-साथ पुलिस खुद ही सबूतों को मिटा दिया करती है। कार्यपालिका से विधायिका के मधुर संबंधों के कारण ही ऐसा हो पाता है क्योंकि अपना संविधान यही कहता है कि भले ही सबूत के अभाव अपराधी कानून की गिरफ्त से छूट जाए मगर निरपराध को सजा नहीं होनी चाहिए।

कामदुनी और निठारी– दोनों ही मामलों में लगता है कि सबूतों से जानबूझकर छेड़छाड़ की गई है जिससे आरोपितों के खिलाफ अदालत के समक्ष ठोस साक्ष्य पेश नहीं किए जा सके। इससे अदालतों की गरिमा लांछित होती है। जरूरत है कि न्यायपालिका ही कार्यपालिका की नकेल कसे ताकि किसी अपराधी को साक्ष्य के अभाव में कानून का मजाक उड़ाने का मौका नहीं मिले। वक्त आ गया है जब इंसाफ के साथ इंसाफ किया जाए।