गांव और शिक्षक
ग्रामीण स्कूलों का बुनियादी ढांचा तथा परिवेश भी वैसा नहीं होता जहां शिक्षक अपने काम में मन लगा सकें। वजह यह है कि गांवों की आधारभूत संरचना उतनी विकसित नहीं हो सकी है। सुविधाओं की कमी भी कहीं न कहीं ग्रामीण बच्चों और शिक्षकों को शहरों की ओर भागने को मजबूर करती है।
पता चला है कि सरकार इस बात पर विचार कर रही है कि ग्रामीण शिक्षा के स्तर को आगे ले जाने की दिशा में ठोस पहल होगी। इसके लिए प्रावधान तय किया जा रहा है कि प्रत्येक शिक्षक को अब ग्रामीण इलाके के विद्यार्थियों को पढ़ाने के लिए अनिवार्य रूप से गांव के स्कूलों में ही पहले नियुक्ति दी जाएगी। सोच अच्छी है। गांव के विद्यार्थियों को बेहतर शिक्षा देने के लिए सरकार की ओर से यदि अच्छे शिक्षकों को ग्रामीण स्कूलों में भेजा जाय तो इस प्रयास से हो सकता है कि कुछ हद तक गांव के बच्चों का भी भला हो जाए।
लेकिन मुद्दा यह है कि शिक्षकों को किसी शहर या देहात के स्कूल में भेजना और उन्हें बच्चों को पढ़ाने के लिए कहना- ये दोनों अलग बातें हैं। देखा यही जाता है कि ग्रामीण स्कूलों के शिक्षक ज्यादातर निजी कामों में ही व्यस्त रहा करते हैं, यह बात दीगर है कि उनमें भी कुछ लोग ईमानदारी से अपना काम कर रहे होते हैं। लेकिन गांव या शहर, जहां भी देखा जाए सबसे ज्यादा राजनीतिक तौर पर शिक्षक ही सक्रिय होते हैं तथा किसी न किसी मसले को उठाकर अक्सर आंदोलन में शामिल रहते हैं। सवाल है कि सरकार ने जिन लोगों को देश की भावी पीढ़ी को सुशिक्षित बनाने का जिम्मा दे रखा है, वे अपना काम ईमानदारी से क्यों नहीं कर पाते। लेकिन इन मसलों पर शिक्षक संगठनों की भी कोई स्पष्ट राय सुनने को नहीं मिलती।
इसके अलावा ग्रामीण स्कूलों का बुनियादी ढांचा तथा परिवेश भी वैसा नहीं होता जहां शिक्षक अपने काम में मन लगा सकें। वजह यह है कि गांवों की आधारभूत संरचना उतनी विकसित नहीं हो सकी है। सुविधाओं की कमी भी कहीं न कहीं ग्रामीण बच्चों और शिक्षकों को शहरों की ओर भागने को मजबूर करती है। मिसाल के तौर पर अगर सबसे आधुनिक शिक्षा के तहत शामिल कम्प्यूटर को ही शामिल किया जाए तो हर इलाके में अभी भी न तो इसका उतना प्रसार है तथा ना ही इंटरनेट की सुविधा ही हर जगह मौजूद है।
इंटरनेट तो दूर की बात है, बिजली तक नदारद है आज भी। ऐसे माहौल में जहां आधारभूत संरचना ही इतनी लचर है तो शिक्षकों को अनिवार्य रूप से ग्रामीण इलाके के स्कूलों में नियुक्त करने का कोई खास मतलब नहीं होगा। इसी क्रम में कुछ शिक्षकों को हमेशा शहर भागने की जल्दबाजी लगी रहेगी क्योंकि शहरी जीवन लोगों को आसान लगता है। इसमें राज्यों के स्कूल शिक्षा बोर्ड में शामिल राजनीतिक चेहरों की भूमिका अहम हो जाती है क्योंकि उनके जरिए शिक्षकों का दबाव अपने तबादले पर अधिक और पढ़ाने पर कम होता है।
सरकार को चाहिए कि किसी भी व्यवस्था को अनिवार्य करने से पहले गांवों के परिवेश को इतना उन्नत बनाए कि विद्यार्थियों को उचित समय पर उचित संसाधन मुहैया हो सकें। भारत में संभावनाओँ की कोई कमी नहीं है। मेधावी बच्चों का कोई खास क्षेत्र नहीं होता। शहरों के साथ-साथ देहातों में भी मेधावी बच्चे पढ़ रहे होते हैं। उन्हें अगर शहरों की तरह ही सारी सुविधाएं गांवों में मुहैया करा दी जाएं तो गांव के बच्चे भी किसी से कम नहीं होंगे। शिक्षकों को ग्रामीण इलाकों में अनिवार्य रूप से नियुक्त करने की सोच को अमल में लाने से पहले सरकार को पहले गांवों की दशा बदलनी होगी। तभी विद्यार्थियों का विकास होगा।