हिन्दी की जंग

सांस्कृतिक, राजनैतिक व आर्थिक मोर्चे पर भी हिन्दी की उपयोगिता अतुलनीय है। यह बात दीगर है कि पश्चिम बंगाल सरीखे कुछ राज्यों में हिन्दी विरोध की छतरी ताने कुछ लोग खड़े हैं। हास्यास्पद यह है कि बंगाल में भी जो हिन्दी का विरोध करते हैं, वे हिन्दी गानों का मजा लेते हैं। हिन्दी सीरियल देखते हैं।

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यह भी एक सुखद अचरज ही है कि जिस देश की आधी से ज्यादा आबादी हिन्दी भाषा जानती, बोलती, समझती है-उस देश में हिन्दी को अभी तक राष्ट्रभाषा बनने की जंग लड़नी पड़ रही है। अंग्रेजीदां कुछ सियासतदानों ने आजादी के बाद 1949 में भारत के सवाल पर जो हंगामा खड़ा किया था, वह आज भी वैसे ही जारी है। देश के कुछ हिस्सों को छोड़कर बाकी इलाके में आज भी हिन्दी से डाह रखने वालों की संख्या कम नहीं है। इसे एक सुखद संयोग ही कहा जाएगा कि 1949 से लेकर अबतक हिन्दी यह लड़ाई लड़ रही है और अगर देश चलाने वालों की नीयत ऐसी ही रही तो शायद लड़ाई और लंबी होगी।

यहां मिसाल के तौर पर चीन को शामिल किया जा सकता है जहां शासन क्षमता दखल करने के बाद शासक ने पूछा कि कौन सी भाषा ज्यादातर बोली जाती है। जवाब में पता चला कि बीजिंग और आसपास के इलाकों में मेंडरिन भाषा का चलन है जबकि दूसरे प्रांतों में अन्य कई बोलियां बोली जाती हैं। शासक का निर्णय था कि मेंडरिन को ही राष्ट्रभाषा बना दो और वह भी अगले दिन से ही लागू होनी चाहिए। इस तरह चीन की अपनी एक भाषा बन गई लेकिन भारत आज भी अंग्रेजी और हिन्दी के बीच लटका हुआ है।

पखवाड़ा मनाने की क्या जरूरत

भारत में फिलहाल राजभाषा पखवाड़ा मनाया जा रहा है। आयोजन के नाम पर कुछ लोगों को फूल-मालाओं से लाद दिया जाएगा। अच्छे-अच्छे भाषण सुनाए जाएंगे। भाषा अपनाने की दलील दी जाएगी। लेकिन यह दलील अपने लिए नहीं होगी। हिन्दी को कुछ लोग फैशन बना लिए हैं। यदि अपनी भाषा बनाया जाता तो शायद पखवाड़ा मनाने की जरूरत नहीं होती। दक्षिणी राज्यों में हिन्दी का विरोध आज भी जारी है। सुदूर पूर्वी भारत में भी वही हालत है। केवल उत्तर और मध्य भारत के बूते हिन्दी को राष्ट्रभाषा नहीं बनाया जा सकता। मगर इस राह को सुगम बनाने के लिए कई बातों पर गौर करना होगा।

सबसे बड़ी बात यह है कि भाषा किसी समाज की सांस्कृतिक पहचान होती है जिसमें उसकी सभ्यता निहित होती है। हिन्दी भाषा जिस सभ्यता का वहन करती है वह कोई अचानक पैदा नहीं हो गई है। सदियों से बह रही इतिहास की धारा समय के हिचकोले खाकर अपने साथ जो समिधा बटोर कर लाई है, उसका नाम हिन्दी है। इसकी वैज्ञानिकता के आगे पूरी दुनिया नतमस्तक है। इस भाषा की खूबी यह है कि इसमें जैसा लिखा जाता है, वैसा ही पढ़ा जाता है। यह सुविधा अंग्रेजी में नहीं। हिन्दी की ध्वन्यात्मकता के कायल कई गैर हिन्दी भाषी रहे हैं।

हिन्दी की उपयोगिता

सांस्कृतिक, राजनैतिक व आर्थिक मोर्चे पर भी हिन्दी की उपयोगिता अतुलनीय है। यह बात दीगर है कि पश्चिम बंगाल सरीखे कुछ राज्यों में हिन्दी विरोध की छतरी ताने कुछ लोग खड़े हैं। हास्यास्पद यह है कि बंगाल में भी जो हिन्दी का विरोध करते हैं, वे हिन्दी गानों का मजा लेते हैं। हिन्दी सीरियल देखते हैं। हिन्दी फिल्मों की टीआरपी बढ़ाते हैं। यहां तक कि हिन्दी के नाम पर कमाते-खाते भी हैं। फिर भी हिन्दी से ईर्ष्या रखते हैं।

हिन्दी विरोध की बात करने वालों को पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी की बात याद रखनी चाहिए जिसमें उनका कहना था कि देश का पीएम वही बन सकता है जिसे हिन्दी आती हो। मतलब यह कि हिन्दी ने इतने सालों में एक खास मुकाम हासिल तो कर लिया है लेकिन देश चलाने वालों में इसे राष्ट्रभाषा घोषित करने का माद्दा नहीं दिखता। भारत को भी अपनी राष्ट्रभाषा के लिए चीन के शासक सन यात सेन जैसी दिलेरी वाले किसी शख्स की जरूरत है। तबतक मनता रहेगा पखवाड़ा, बजती रहेंगी तालियां।