हिस्सेदारी व भागीदारी

जातियों के आधार पर समाज को बाँटने की सियासत का सीधा सा मतलब यही है कि भाजपा के हिंदुत्व की धार को कुंद किया जाए। बिहार की जनगणना से ही मालूम हो जाता है कि हिंदुओं की संख्या लगभग 80 फीसदी है। साफ मतलब यह हुआ कि अगर जातियों के दलदल से लोगों को निकाल लिया गया तो हिंदू के नाम पर बहुसंख्यक वर्ग अपना वर्चस्व कायम करने की कोशिश करेगा।

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बिहार में जाति के आधार पर जनगणना कर ली गई है। इस गणना के प्रारंभिक नतीजों से खुद नीतीश कुमार की सरकार में शामिल लोग भी इत्तेफाक नहीं रख पाते, इसीलिए पटना में सर्वदलीय बैठक बुलाई गई। बैठक में शामिल कई लोगों ने गणना के तरीके पर सवाल खड़ा करने के साथ ही सरकार को यह सुझाव भी दिया है कि जिन जातियों की आबादी को किसी और जाति के साथ जोड़कर दिखाया गया है, उन जातियों को अलग किया जाए। अगर उन जातियों को अलग करके नहीं दिखाया गया तो फिर उनके लिए आरक्षण की व्यवस्था नहीं हो पाएगी तथा उनका विकास रुक जाएगा। बात में दम है।

जाति आधारित जनगणना

खुद सीएम ने भी भरोसा दिलाया है कि इस दिशा में ठोस कदम उठाए जाएंगे। इसी क्रम में अब देश के दूसरे राज्यों में भी जाति के आधार पर जनगणना कराने का दबाव बनने लगा है। दलील यह दी जा रही है कि जितनी जिसकी संख्या है, उसके आधार पर सत्ता में उसका हक भी तय किया जाए। इस दलील को कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी भी मानने लगे हैं। उनका भी दावा है कि अगर केंद्र में उनकी सरकार आती है तो जाति आधारित जनगणना कराई जाएगी।

लेकिन कांग्रेस के ही अभिषेक मनु सिंघवी के एक ट्वीट पर विचार करने लायक है। अभिषेक का मानना है कि इससे देश में एक नई परंपरा पनपेगी जिसके तहत बहुसंख्यकवाद की हवा बहने लगेगी और इस तरह जिसकी संख्या जहां अधिक होगी, वह अपने-अपने तरीके से हक दिखाने लगेगा। तब जो अल्पसंख्यक बचेंगे, उनके साथ क्या सलूक होगा-इसकी भी कल्पना कर लेनी चाहिए। सिंघवी ने अपने इस ट्वीट (एक्स) को शायद किसी दबाव में तुरंत हटा भी दिया है लेकिन जो मुद्दा उन्होंने उठाया, उसकी गहराई में उतरने पर बात साफ होने लगती है।

दरअसल जातियों के आधार पर समाज को बाँटने की सियासत का सीधा सा मतलब यही है कि भाजपा के हिंदुत्व की धार को कुंद किया जाए। बिहार की जनगणना से ही मालूम हो जाता है कि हिंदुओं की संख्या लगभग 80 फीसदी है। साफ मतलब यह हुआ कि अगर जातियों के दलदल से लोगों को निकाल लिया गया तो हिंदू के नाम पर बहुसंख्यक वर्ग अपना वर्चस्व कायम करने की कोशिश करेगा। इसीलिए जातियों में बाँटने की सियासत की गई है। यह वही फार्मूला है जिसमें अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के दौर में कमंडल की हवा को गायब करने के लिए विश्वनाथ प्रताप सिंह ने अचानक मंडल की हवा छोड़ी थी।

हिस्सेदारी की बात

देश एक बार फिर उसी मुकाम पर खड़ा नजर आता है। लेकिन आज जिस मोड़ पर खड़े होकर नेता हिस्सेदारी की बात कर रहे हैं, उन्हें यह जरूर ध्यान में रखना चाहिए कि इसी हिस्सेदारी की चाह में 1947 में एक कहानी गढ़ी गई थी। इतिहास खुद को दुहराता भी रहता है। सावधानी की जरूरत है क्योंकि बहुसंख्यकवाद अगर हावी हुआ तो सारा सियासी खेल चौपट हो सकता है। मंडल की हवा में कुछ दिन के लिए कमंडल छिप जरूर गया था, लेकिन बाद में उसका जो वृहद रूप सामने आया है उसी से लड़ने की कोशिश आज 26 दल मिलकर कर रहे हैं।

जातियों के आधार पर समाज को बाँटने से बेहतर तो यही होता कि आर्थिक आधार पर सीमाएं तय की जातीं और हर वर्ग के जागरूक लोगों को सत्ता में भागीदार बनाया जाता। अफसोस, सत्ता चलाने वाले लोग भले भागीदारी देने की बात करें मगर हिस्सा देते वक्त अपने परिजनों को नहीं भूलते। परिवारवादियों से हिस्सा पाने की अपेक्षा बेमानी है।