काश, ऐसा हो पाता!

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दुनिया में अक्सर कई बार देखा गया है कि समाज के कुछ नियमों का बदलाव किया जाता है, बाद में जब पता चलता है कि ऐसे बदलावों से काम नहीं चलने वाला है तो फिर से उन बदलावों में संशोधन किया जाता है। कहने का मतलब यह है कि अपने आप में किसी भी सिद्धांत को पूरी तरह तबतक सही नहीं कहा जाता जबतक उन पर अंतिम सफल प्रयोग नहीं हो जाता। लेकिन समाजशास्त्र या राजनीति विज्ञान के विद्यार्थियों को यही बताया जाता है कि बदलाव एक निरंतर प्रक्रिया है तथा किसी भी एक विचार को पूरी तरह दुरुस्त नहीं माना जा सकता।

ऐसे ही विचारों में शामिल है दबे-कुचले-अवहेलित लोगों को आरक्षण के सहारे सामने लाने की कोशिश। इस कोशिश को भारतीय संविधान ने भी आजमाया है और वह सिलसिला आज भी जारी है। कुछ ऐसा ही अमेरिका में भी हो रहा था। वहां भी कमजोर तबके के लोगों को उनकी जाति के आधार पर देश के नामीगिरामी शिक्षण संस्थानों में दाखिला मिल जाया करता था। दलील यह थी कि इससे कमजोर तबके के लोगों को भी अगली कतार में बैठने का मौका मिलेगा। लेकिन इस सामाजिक व्यवस्था को अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में उलट कर रख दिया है।

बदलाव का दौर जारी

अब अमेरिका (America) में भी जाति के नाम पर किसी को भी शिक्षण संस्थानों में दाखिले का मौका नहीं मिलेगा। इस फैसले पर मिश्रित प्रतिक्रिया सुनने को मिल रही है। जहां राष्ट्रपति बाइडन और पूर्व प्रेसिडेंट बराक ओबामा ने इस फैसले की तीव्र निंदा की है, वहीं डोनाल्ड ट्रंप ने इसका स्वागत किया है। ज्ञात रहे कि 1960 के दशक से ही अमेरिका में प्रचलित कई कानूनों में बदलाव का दौर जारी है।

इसी बदलाव के तहत गोरे और काले लोगों के बीच की खाई मिटाने के लिए भी नस्लभेदी अधिनियम पारित किया गया। अफ्रीकी-अमेरिकन समुदाय के लोगों को इन बदलावों के तहत शामिल किया गया और इससे पूरी दुनिया को संदेश दिया गया कि अब अमेरिकी समाज में नस्ल भेद नहीं है। ताजा घटना में सुप्रीम कोर्ट ने ही कहा है कि ऊंची शिक्षा में दाखिले के लिए जातियों को आधार नहीं बनाया जाना चाहिए।

अदालत का मानना है कि इससे कम मेधावी लोगों को भी संवेदनशील क्षेत्रों में काम करने का मौका मिल जाता है। और किसी भी क्षेत्र में अगर औसत या कम मेधावी लोगों को मेधावी लोगों के बीच काम करने का मौका दिया गया तो उनमें समानता वाली बात नहीं रहती। अदालत की इस सोच का स्वागत किया जाना चाहिए। भारत जैसे देशों को भी इससे सीखने की जरूरत है।

गुणवत्ता से समझौता करना

यहां भी पहले से ही कहा जाता रहा है कि आरक्षण की व्यवस्था उन क्षेत्रों में होनी चाहिए जिनसे समाज के पिछड़े वर्ग का विकास हो। यहां तक कि पिछड़े वर्ग के लोगों को शिक्षा में भी आरक्षण देकर दूसरों से समानांतर खड़ा करने की बात कही जाती रही है। लेकिन अगर देश के लिए सामरिक महत्व के विभागों तथा सामाजिक दायित्व से जुड़े संवेदनशील विभागों में केवल जाति के आधार पर ही औसत मेधा वाले लोगों को दाखिला दिया जाता रहा तो इससे कहीं न कहीं गुणवत्ता से समझौता करना होगा। और किसी भी कीमत पर कोई देश यदि गुणवत्ता से समझौता करता है तो उसका विकास रुक जाएगा।

इस मामले में अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट (SUPREME COURT OF THE UNITED STATES) के फैसले को एक अच्छी पहल कहा जा सकता है। काश, भारत में भी वोटों की सियासत से इतर राजनेताओं को देश की चिंता होती और जातियों के नाम पर होने वाली बंदरबाँट पर विराम लगता। काश!!!