इंडिया की दलील
कांग्रेस की रही-सही ताकत भी जाती रही क्योंकि छत्तीसगढ़ और राजस्थान से भी उसकी विदाई हो गई। विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद अब फिर से इंडिया गठबंधन की बात चल पड़ी है लेकिन गठबंधन के बाकी सदस्यों का रुख पहले की अपेक्षा थोड़ा बदला-बदला लग रहा है।
लोकसभा चुनाव से ठीक पहले मोदी की सरकार को अपदस्थ करने के लिए बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने देश भर के नेताओं से मुलाकात की थी। मुलाकात का मकसद एक ही था। मकसद था सभी गैर भाजपाई विचारधारा वाले दलों को एक छतरी के नीचे लाना और संगठित रूप से भाजपा का पूरे देश में मुकाबला करना। तब हवा चली थी कि नीतीश को विपक्षी गठबंधन की ओर से संयोजक का पद दिया जाएगा। लेकिन विधानसभा चुनावों की घोषणा के साथ ही इंडिय़ा गठबंधन का मसौदा गायब हो गया और भाजपा के मुकाबले अकेले कांग्रेस ही मैदान में खड़ी हो गई। सीधी लड़ाई में नतीजा वही हुआ जिसका लोगों को डर था।
कांग्रेस की रही-सही ताकत भी जाती रही क्योंकि छत्तीसगढ़ और राजस्थान से भी उसकी विदाई हो गई। विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद अब फिर से इंडिया गठबंधन की बात चल पड़ी है लेकिन गठबंधन के बाकी सदस्यों का रुख पहले की अपेक्षा थोड़ा बदला-बदला लग रहा है। सबसे पहले कोशिश करने वाले नीतीश कुमार ने ही कहा था कि लगता कि विधानसभा चुनावों के कारण इंडिया गठबंधन का मामला कहीं गुम हो गया है। बाद में अखिलेश की ओर से कांग्रेस पर गंभीर आरोप लगाए गए। अखिलेश तो नतीजे आने के बाद भी तंज कस रहे हैं। तीसरी ओर तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी का भी दावा है कि जनता की नहीं, बल्कि विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की हार हुई है।
ममता का मानना है कि कांग्रेस ने अगर जिद नहीं की होती और गठबंधन के सभी दलों को साथ लेकर विधानसभा चुनाव लड़ी होती तो नतीजे इससे बेहतर आते। यह सबको पता है कि देश पर शासन वही दल कर सकता है जिसकी पहुंच पूरे देश में तथा खासकर हिन्दी भाषी राज्यों में व्यापक तौर पर हो। ऐसे में अब गठबंधन की बैठक से सहयोगियों का जी चुराना यही जाहिर करता है कि सीटों के बँटवारे के मामले में कांग्रेस पर दबाव बनेगा।
नीतीश कुमार, अखिलेश यादव और ममता बनर्जी के इन्कार के बाद गठबंधन की बैठक को भी टाल दिया गया है। यहां तक कि जिस एजेंडे को तय करते हुए चुनाव लड़ने की बात कही गई थी, शायद उसमें भी बदलाव की गुंजाइश हो सकती है क्योंकि डीएमके की ओर से भी अब सनातन के मसले पर लीपापोती की जाने लगी है।
इन तमाम संभावनाओं के बीच यदि लोकसभा चुनाव की तस्वीर विपक्ष की ओर से तैयार की जाती है तो सबसे खास बात यह होगी कि कांग्रेस को कम से कम हिन्दी भाषी प्रदेशों में दूसरे क्षेत्रीय दलों के बूते ही आगे बढ़ना होगा। एनडीए की सरकार को पराजित करने के लिए अब बदले हुए हालात में जिन क्षेत्रीय दलों को कांग्रेस ने मध्यप्रदेश या छत्तीसगढ़ व राजस्थान में दरकिनार किया था, उनके आगे नतमस्तक होना पड़ेगा क्योंकि उत्तर प्रदेश या बिहार जैसे राज्यों से कांग्रेस को विदा हुए कई दशक हो गए थे।
अब बाकी के तीन राज्यों में भी उसकी जो नाव डूबी है, उससे इंडिया गठबंधन के सहयोगी दलों को तलवारें भाँजने का मौका मिलेगा। उम्मीद है कि समय की नब्ज को टटोलते हुए कांग्रेस नेतृत्व कोई फारमूला जरूर अपनाएगा जिससे आम चुनाव में एनडीए की सरकार को हटाने का सपना पूरा किया जा सके।