खुशफहमी के आंकड़े
घरेलू हिंसा का जो आलम है वह लगातार पश्चिम बंगाल, बिहार और झारखंड में गरीबी के कंधे पर सवार होकर और मजबूत होता जा रहा है। आए दिन खबरें आती हैं कि झारखंड के किसी गांव की गरीब लड़की को काम दिलाने के बहाने बाहर ले जाकर किसी ने गायब कर दिया है। बंगाल और बिहार से भी काम दिलाने के नाम पर मोटी रकम लेकर लोग युवक-युवतियों को देश के बाहर भेज दिया करते हैं।
भारत में काम कर रही कई एजेंसियां समय-समय पर अपने तरीके से आंकड़े पेश करती हैं। कोई देश की तरक्की का आंकड़ा पेश करती है तो किसी को केवल सरकारी काम में बुराई ही नजर आती है। कई एजेंसियां तो ऐसी हैं जो चुनाव के समय में सरकार के इशारे पर ऐसी दास्तान पेश करती हैं, जिनसे लगता है कि आंकड़ों को पीकर ही लोगों की प्यास बुझ जाएगी।
ऐसे ही कुछ आंकड़े इन दिनों सामने आए हैं जिनमें कहा गया है कि अपराधों के बारे में सबसे सुरक्षित जगह का नाम पश्चिम बंगाल है। इसे जानकर बहुत से लोगों को खुश होने का मौका मिल सकता है। आखिर नेशनल क्राइम ब्यूरो की ओर से जारी किए गए आंकड़ों को भला कोई झुठला कैसे सकता है। लेकिन इन आंकड़ों की सच्चाई को समझने की जरूरत है। सच्चाई समझ में आते ही सारी खुशफहमी दूर हो जाएगी।
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के पास उन्हीं घटनाओं की खबरें पहुंचती हैं जिनका सरकारी खाते में उल्लेख किया जाता है। मतलब यह कि जिन अपराधों को पुलिस अपनी पुस्तक में दर्ज करती है, उनके रिकॉर्ड इस ब्यूरो के पास मौजूद होते हैं। लेकिन जिन अपराधों को पुलिस कलमबंद ही नहीं कर पाती अथवा जिनकी शिकायत पुलिस से नहीं की जाती उनके बारे में ब्यूरो को जानकारी कैसे होगी।
यही वजह है कि बंगाल में आपराधिक घटनाओं में कमी का उल्लेख किया गया है अन्यथा हर जिले में जिस तरह सियासी हिंसा होती रही है, शायद देश के किसी भी राज्य में सियासत के कारण इतनी हिंसा नहीं हुआ करती। मगर अफसोस है कि राज्य पुलिस ऐसे मामलों को दरकिनार कर दिया करती है। हालात तो ऐसे हैं कि राज्य में विरोधियों को कोई राजनीतिक सभा करने के लिए भी अदालत की शरण लेनी पड़ती है। इसे क्या कहा जाएगा।
घरेलू हिंसा का जो आलम है वह लगातार पश्चिम बंगाल, बिहार और झारखंड में गरीबी के कंधे पर सवार होकर और मजबूत होता जा रहा है। आए दिन खबरें आती हैं कि झारखंड के किसी गांव की गरीब लड़की को काम दिलाने के बहाने बाहर ले जाकर किसी ने गायब कर दिया है। बंगाल और बिहार से भी काम दिलाने के नाम पर मोटी रकम लेकर लोग युवक-युवतियों को देश के बाहर भेज दिया करते हैं। इसे किस अपराध की श्रेणी में रखा जाए। ऐसे अपराधों को किसी थाने में पहले दर्ज ही नहीं किया जाता है।
किसी प्रभावशाली के हस्तक्षेप के बाद यदि इस तरह के मामले थाने में दर्ज भी किए जाते हैं तो किसी नतीजे पर नहीं पहुंचते। ऐसे में समाज में अपराध बढ़ने या घटने की बात से जुड़े आंकड़े लोगों को भले ही खुश कर दें, लेकिन जमीनी हकीकत से आंकड़ों का संबंध बहुत कम ही होता है।
जरूरत यह है कि किसी भी राज्य की सरकार ऐसे आंकड़ों से लोगों को लुभाने या खुद को पाक-साफ दिखाने की कोशिश न करे। समाज से अपराध मिटाने की सकारात्मक कोशिश करे। इन आंकड़ों के खेल में छलावा है। कुछ हद तक सरकार द्वारा प्रायोजित कुछ एजेंसियों की ओर से जनता को बीच-बीच में खुश रखने के लिए दी जाने वाली दवा के तौर पर इन आंकड़ों को समझा जाना चाहिए। खुशफहमी से बेहतर है कि हकीकत की जमीन पर रहा जाए।