सुशासन का कुशासन

119

बिहार में सुशासन बाबू के रूप में मशहूर नीतीश कुमार के बारे में कहा जाता है कि हर हाल में राज्य में कानून का राज कायम रखने की उनकी जिद रही है।

कानून का राज कायम करने की दिशा में ही नीतीश कुमार ने बिहार में सबके विरोध के बावजूद शराबबंदी लागू कर दी। इसका उन्हें लाभ भी मिला। समझा जाता है कि उनकी पार्टी जनतादल यूनाइटेड को पिछले चुनाव में शराबबंदी का लाभ ले रही महिलाओं ने जी खोल कर वोट दिया था।

यह बात दीगर है कि तथाकथित महिलाओं के पूरे समर्थन के बावजूद नीतीश की पार्टी बिहार में पूर्ण बहुमत हासिल नहीं कर सकी।
नीतीश बाबू अपनी सफलता में राज्य की महिला मतदाताओं की भूमिका को पूरा कबूल करते हैं।

भाजपा से नाता तोड़ने के बावजूद बिहार के सीएम की सोच में कोई बदलाव नहीं है। उनकी सोच यही है कि जबतक वे कुर्सी पर हैं, राज्य में शराबबंदी में कोई ढील नहीं दी जाएगी।

लेकिन शराबबंदी किस हद तक सफल हो सकी है अथवा शराब के कारोबारी कितने नियंत्रण में हैं-इसकी भी एक बानगी देखने लायक है। हकीकत यही है कि 2016 में शराबबंदी लागू करने वाली बिहार सरकार अभी तक यह तय नहीं कर सकी है कि सचमुच बिहार में शराब को पूरी तरह से बंद कर दिया गया है या नहीं।

सुशासन बाबू की सरकार के बड़े अफसरान किसी भी कीमत पर मुख्यमंत्री के साथ सहयोग करने को तैयार नहीं हैं। यही वजह है कि सीएम जब किसी एक दिशा में चल रहे हैं तो उनके सरकारी बाबू लोग किसी दूसरी दिशा में काम कर रहे हैं।

अगर ऐसा नहीं होता तो अबतक बिहार में सचमुच कानून का राज कायम हो गया होता और कम से कम छपरा में जिस तरह से अवैध शराब पीकर लोगों की मौत हुई, उससे बचा जा सकता था।

लेकिन ऐसा इसलिए नहीं हो सका क्योंकि सरकार में शामिल ज्यादातर लोग नीतीश कुमार की शराबबंदी से सहमत नहीं हैं। खुद सरकार के मंत्री ही जब शराब के लिए हायतौबा मचा रहे हैं तो आखिर बिहार पुलिस या आबकारी विभाग के लोग सरकार का कितना साथ दे पाएंगे।

ऐसे में जब सरकार को लग रहा है कि शराबबंदी का कोई असर नहीं हो सका तो कम से कम मुख्यमंत्री को अपने फैसले की समीक्षा करनी चाहिए। ज्ञात रहे कि बिहार में चोरी-छिपे आज जो शराब का धंधा चल रहा है उसमें तकरीबन 50 से 60 हजार करोड़ रुपये का निवेश हो चुका है।

ऐसे में मुख्यमंत्री को भी अब नये सिरे से सोचना चाहिए। जिस कानून को जनता की भलाई के लिए लागू किया जाए और जनता उसे ठुकरा दे, उस कानून की समीक्षा जरूरी हो जाती है।

मगर नीतीश कुमार खुन्नस मिटाने की कोशिश में यही कहते फिर रहे हैं कि शराब पीओगे तो मरोगे ही। जाहिर है कि सीएम की यह बात उनके गुस्से का इजहार करती है।

लेकिन समय आ गया है जब नीतीश कुमार को जनता की सोच के साथ चलना चाहिए। लोगों की सेहत बनाने तथा गरीबों के परिजनों को शराब जैसी बुराई से बचाने की मुख्यमंत्री की सोच बुरी नहीं है- मगर जब लोग ही उस पर अमल नहीं करें, तो ऐसी सोच का क्या फायदा।