अब नेताजी और लाल बहादुर जैसे लालों के सच की बारी

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इतिहास के पन्नों को पलटने का काम किया जाय तो शायद हम उस हकीकत को जान पाएंगे जिसे कथित तौर पर सियासी कारणों से दबा दिया गया है। सच्चाई यह है कि कुछ देशी रियासतों के इतिहास के अलावा संपूर्ण भारत का इतिहास मुहम्मद गोरी से पहले रासो काव्यों के जरिए ही हासिल हो पाता है।

मगर इस रासो साहित्य को भी स्वतंत्र रूप से भारत का स्वाभाविक इतिहास कुछ लोग नहीं मानते क्योंकि ऐसा दावा किया जाता है कि राजाओं ने अपनी बड़ाई के लिए अपने चहेते चारणों की मदद से पुस्तकें लिखवाकर अपनी पीठ थपथपाई है। शायद इसीलिए तब के इतिहास से इतर विदेशी आक्रांताओं के दौर का इतिहास ज्यादा पुख्ता और प्रामाणिक महसूस किया जाता है।

मगर केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने इतिहास को सुधार कर लिखने की बात कहकर भारत की दुखती रग पर हाथ रख दिया है। संघ परिवार की ओर से बहुत पहले ही भारतीय इतिहास पुनर्लेखन संस्थान नामक एक संस्था की जरूरत महसूस की गई जिसने कई मामलों में मुगल और ब्रिटिश शासन द्वारा लिखित इतिहास को उलटने का काम किया है।

दावा यह किया जाता रहा है कि विदेशी शासकों ने अपनी सुविधा के हिसाब से भारतीय इतिहास को लिखवाने का काम किया। संघ परिवार इस मामले में कांग्रेस के साथ ही वामपंथियों पर भी निशाना साधता रहा है। उसका मानना है कि कांग्रेस और वामपंथियों ने स्वाधीनता संग्राम के साथ ही आजादी के बाद के इतिहास को तोड़-मरोड़ कर पेश किया है। उसे अब बदलने या कथित तौर पर सही करने की जरूरत है।

अमित शाह की बात को पूरी तरह से नकारा नहीं जा सकता। कुछ मामलों में स्वदेशी वीरों की तुलना में विदेशी ताकतों की प्रशंसा हमारे इतिहासकारों ने की है। लेकिन यहां एक विवाद की गुंजाइश बनती है। इतिहास को सुधार कर लिखने से पहले उन चेहरों को भी सामने लाना होगा जो सही मायने में किसी राजनीतिक विचारधार से प्रभावित नहीं रह कर, मूल भारतीय मूल्यों का आदर करना जानते हैं।

यह बेहद कठिन काम है। कठिन इसलिए क्योंकि हर सरकार के दौर में ऐसे बुद्धिजीवियों की बाढ़ आ जाती है जो सरकारी कृपा के गुलाम होते हैं। और सरकारी अनुग्रह के आधार पर ही उनकी लेखनी काम करने लगती है। यदि भाजपा के शासनकाल में भी ऐसे ही बुद्धिजीवियों को इस काम से जोड़ा जाय, जिन्हें दक्षिणपंथी सोच का कायल माना जाता हो- तो फिर ऐसे इतिहास लेखन से देश का भला नहीं हो सकता क्योंकि सत्ता के बदलने के साथ ही इतिहास के पन्ने भी बदल सकते हैं।

इतिहास दुबारा लिखने की जरूरत तो है लेकिन इस बात को दिमाग में रखना होगा कि प्रामाणिकता का अभाव न हो। यह सही है कि इतिहास में बहुतेरी घटनाओं को जानबूझकर दबाया गया है। मिसाल के तौर पर समूचा भारत यह जानना चाहता है कि नेताजी सुभाषचंद्र बोस के साथ क्या हुआ था और उनके अंतिम दिनों की सच्ची कहानी क्या थी।

आजादी के बाद की भारतीय आबादी लाल बहादुर शास्त्री जैसे दृढ़ संकल्पित प्रधानमंत्री की रहस्यमय मौत के कारणों की सही जानकारी चाहती है। बिरसा मुंडा, होमी जहांगीर भाभा, मैडम कामा जैसे सैकड़ों नाम हैं जिनके बारे में देश की नई पीढ़ी जानने को आतुर है।

अफसोस है कि किन्हीं विशेष मजबूरियों के कारण गोपनीयता का सहारा लेकर ऐसी सच्चाइयों को इतिहास के पन्नों से गुम किया जाता रहा है। देश सचमुच भारत के वास्तविक इतिहास को जानना चाहता है, लेकिन जरा संभल के।