राज्यपालों की समस्या

केंद्र की मोदी सरकार पर भी ऐसे ही आरोप लग रहे हैं कि यह अपने विरोधियों की सरकारों को काम नहीं करने दे रही। इसी मामले में सुप्रीम कोर्ट की एक राय आई है। भारत के मुख्य न्यायाधीश जे.वाई. चंद्रचूड़ ने पंजाब के राज्यपाल को कहा है कि आपकी ताकत सीमित है।

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देश की आजादी से लेकर अबतक केंद्र में जितनी भी सरकारें बनी हैं, सभी ने कमोबेश राज्यपालों को अपना खास आदमी बनाकर ही राज्यों में पेश किया है। और यह खास आदमी भी यदि किसी ऐसे राज्य में राज्यपाल बन जाता है जहां केंद्र के विरोधी दल की सरकार सत्तारूढ़ हो तो फिर राज्य और केंद्र सरकार में टकराव तेज होने लगती है।

वजह यह है कि राज्यपाल वस्तुतः केंद्र की ओर से राज्य का पहरेदार हुआ करता है और वह राज्य सरकार की तमाम खबरें केंद्र को भेजता रहता है। ऐसे में यदि एक ही दल की सरकार केंद्र और राज्य में हुई तब तो ठीक है। किंतु यदि राज्य सरकार केंद्र सरकार से अलग किसी दूसरे दल की हुई तो राज्यपाल पर काम में दखल डालने के आरोप लगने तय हैं। इस मामले में इंदिरा गाँधी की सरकार भी काफी बदनाम थी जो गैर कांग्रेसी सरकारों पर राज्यपाल के जरिए ही बुलडोजर चलवा दिया करती थी।

सुप्रीम कोर्ट की राय

केंद्र की मोदी सरकार पर भी ऐसे ही आरोप लग रहे हैं कि यह अपने विरोधियों की सरकारों को काम नहीं करने दे रही। इसी मामले में सुप्रीम कोर्ट की एक राय आई है। भारत के मुख्य न्यायाधीश जे.वाई. चंद्रचूड़ ने पंजाब के राज्यपाल को कहा है कि आपकी ताकत सीमित है। आप चुने हुए जनप्रतिनिधि नहीं हैं। लोकतंत्र में ताकतवर वह होता है जिसे जनता ने चुन कर भेजा हो।

आप पंजाब विधानसभा में राज्य सरकार द्वारा पारित किए गए विधेयक को कायदे-कानून के नाम पर लटका कर नहीं रख सकते। ज्ञात रहे कि पंजाब विधानसभा में पारित एक विधेयक को लंबित रखकर राज्यपाल ने है कि इस विधेयक को पारित करने के लिए विधानसभा का जो सत्र बुलाया गया था, वह वैध था या नहीं। सुप्रीम कोर्ट ने इसी पर अपनी प्रतिक्रिया दी है। बाकायदा राज्यपाल को बता दिया है कि आप की ताकत सीमित है। विधानसभा की कार्यवाही कितनी वैध या अवैध है, इसका हिसाब सदन को लेना है।

राजभवन और राज्य सरकार की सोच अलग

राज्यपालों के कार्यकलाप को लेकर इसके पहले भी कई बार विवाद उठते रहे हैं। पश्चिम बंगाल में भी राज्यपाल आनंद बोस से ममता बनर्जी की सरकार का टकराव बढ़ता जा रहा है। बंगाल में विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्ति के मसले पर राजभवन और राज्य सरकार की सोच अलग-अलग है। राजनीतिक हिंसा के मामलों में भी राज्यपाल आनंद बोस की प्रतिक्रिया उन्हें संवैधानिक प्रमुख से ज्यादा किसी राजनेता की तरह ही पेश करती है। कुछ ऐसा ही मामला तमिलनाडु और  तेलंगाना में भी देखा जा चुका है। यहां तक कि महाराष्ट्र में भी वही रवैया देखा जा रहा है।

महाराष्ट्र की सरकार को अंत में सुप्रीम कोर्ट ने कह दिया है कि शिंदे गुट के शिवसेना विधायकों की सदस्यता के मुद्दे को 31 जनवरी तक सुलझा लिया जाए। मतलब यह है कि केंद्र के विरुद्ध जिन राज्यों में भी सरकारें चल रही हैं, वहां के राज्यपालों के काम करने के तरीके पर सवाल उठते रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने इस मसले को सुलझाने के लिए ही पंजाब के राज्यपाल को उनकी हदें समझाने का प्रयास किया है। लोकतंत्र की खूबसूरती इसी बात पर निर्भर करती है कि सभी संवैधानिक घटक आपसी तालमेल बनाकर देश की सेवा करते रहें।