सरकार और आतंकवाद

सुप्रीम कोर्ट ने भी साफ कहा था कि अंदाजा या कयासों के आधार पर किसी नागरिक के बोलने की आजादी नहीं छीनी जा सकती। लिहाजा सुप्रीम कोर्ट की राय भी उल्लेखनीय है। केवल सरकार के काम करने के तौर-तरीकों की बुराई करना, किसी भी तरह से समाज को आतंकित करने का काम नहीं कहा जा सकता।

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आतंकवाद पर सरकारी तौर पर जो भी अबतक बयान जारी होते रहे हैं या जिन घटनाओं को आतंकवाद से जोड़ा जाता रहा है, उन पर नए सिरे से विचार करने की जरूरत आन पड़ी है। दरअसल जम्मू कश्मीर हाईकोर्ट ने इस मामले में बहुत स्पष्ट तौर पर कहा है कि सरकार के कामों की आलोचना करना या सरकारी नीतियों की टीका-टिप्पणी करना कहीं से भी आतंकवाद की श्रेणी में नहीं आता। लोकतंत्र में सभी नागरिकों को इन विषयों पर अपनी राय व्यक्त करने की आजादी है।

अदालत ने इस टिप्पणी के जरिए सरकारी तंत्र को इस बात से भी अवगत कराया है कि यदि सरकारी कामकाज की समीक्षा के तहत कोई नागरिक कुछ तल्ख टिप्पणी करता है तो उसे आतंकवाद का नाम नहीं दिया जाना चाहिए। आलोचक को आतंकवादी बताना संविधान की मूल भावना के विरुद्ध होगा। ऐसा कहकर अदालत ने सरकार को नए सिरे से आतंकवाद की परिभाषा तय करने का विकल्प दे दिया है। दरअसल जम्मू कश्मीर हाईकोर्ट ने पत्रकार फहद शाह पर लगे यूएपीए कानून की समीक्षा के बाद उन्हें जमानत देने की प्रक्रिया के तहत ही यह टिप्पणी की है।

नीतियों पर भी सवाल

पेशे से पत्रकार फहद शाह ने सरकारी नीतियों की आलोचना करती अपनी पुस्तक द शैकल्स ऑफ स्लेवरी विल ब्रेक (गुलामी की जंजीरें टूटेंगी) के तहत कई सरकारी महकमों के साथ ही नीतियों पर भी सवाल खड़े किए थे। इनके कारण ही उन्हें यूएपीए (आतंकवाद निरोधक अधिनियम) कानून के तहत गिरफ्तार किया गया था। अदालत ने मामले की सुनवाई के बाद उन्हें जमानत दे दी है।

इस दौरान पुलिस की उस दलील को भी अदालत ने ठुकरा दिया है जिसमें कहा गया था कि राष्ट्र का सम्मान एक तरह की पूंजी है और इस पर टीका-टिप्पणी से देश का सम्मान नष्ट होता है। अदालत ने इस दलील को सिरे से खारिज कर दिया है। प्रसंगवश सुप्रीम कोर्ट के इसी साल अप्रैल महीने के उस फैसले को भी शामिल किया जा सकता है जिसमें एक मलयालम भाषा के न्यूज चैनल का लाइसेंस नवीकरण करने से सरकार ने मना कर दिया था क्योंकि सरकार को अंदेशा था कि इसके जरिए सरकार की बुराई की जाएगी।

सुप्रीम कोर्ट ने भी साफ कहा

सुप्रीम कोर्ट ने भी साफ कहा था कि अंदाजा या कयासों के आधार पर किसी नागरिक के बोलने की आजादी नहीं छीनी जा सकती। लिहाजा सुप्रीम कोर्ट की राय भी उल्लेखनीय है। केवल सरकार के काम करने के तौर-तरीकों की बुराई करना, किसी भी तरह से समाज को आतंकित करने का काम नहीं कहा जा सकता। ऐसे में सरकार की बुराई को आतंकवाद का नाम नहीं दिया जा सकता। अदालत की इस टिप्पणी के बाद सरकार नए सिरे से आतंकवाद की व्याख्या कैसे करेगी, यह देखना जरूरी होगा। लेकिन इस कड़ी में इतना जरूर कहा जा सकता है कि चाहे केंद्र की सरकार हो या राज्यों की सरकारें हों, सबकी इच्छा यही रहती है कि लोग केवल उनकी प्रशंसा करें।

खासकर मीडिया के एक बड़े हिस्से को विभिन्न दलों की सरकारों ने अपने प्रशंसकों की टीम में शामिल कर लिया है। शायद यही वजह रही है कि मोदी सरकार के विरुद्ध नवगठित इंडिया नामक सियासी मोर्चे ने भी कई पत्रकारों को बाकायदा बहिष्कृत करने का ऐलान कर दिया है। लोकतंत्र की मजबूती के लिए जरूरी है कि विरोधी स्वरों को कुचलने या आतंकवादी घोषित करने के बजाय उनका भी सम्मान किया जाए तथा यदि उनमें कोई सार्थक बात निकलती है तो उसे सधन्यवाद अपनाया जाए।