अब हो सामाजिक न्याय

प्रसंगवश लालू के उस महामंत्र को याद किया जा सकता है जिसमें कुछ लोग कहा करते थे-भूराबाल साफ करो। मतलब भू (भूमिहार), रा (राजपूत), बा (ब्राह्मण) और ल (लाला या कायस्थ) के जरिए कथित तौर पर बिहार की अगड़ी जातियों से पिछड़ी जातियों को लड़ाने की सियासत हो रही थी। लेकिन मौजूदा नतीजे बताते हैं कि इन कथित अगड़ी जातियों का तो वैसा कोई वजूद ही नहीं है।

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बिहार के दो राजनेता क्रमशः लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार एक ही विचारधारा से जुड़े रहे हैं। इनका राजनीतिक आदर्श भी एक ही जैसा रहा है क्योंकि दोनों ही धुरंधर नेता समाजवादी सोच के कायल रहे। दोनों को लोकनायक की छत्रछाया में सियासत करने का मौका मिला। एक का शासन तकरीबन 18 साल तक बिहार में रहा और दूसरे का शासन लगभग 15 सालों से चल ही रहा है। इन तीन दशकों से अधिक के शासनकाल में समाजवादी सोच के कायल इन नेताओं ने बिहार में समाजवाद कहां तक लागू किया, इसकी बानगी जाति आधारित जनगणना के नतीजे हैं। इन नतीजों पर गौर करें तो पता चलता है कि सामाजिक न्याय करने वाले नेता अभी भी दिग्भ्रमित हैं, क्योंकि पिछड़े वर्ग (ओबीसी) की आबादी से ज्यादा है बिहार में अत्यंत पिछड़े वर्ग (ईबीसी) के लोगों की संख्या।

अत्यंत पिछड़ों की संख्या जहां 36 फीसदी है वहां पिछड़ों की आबादी 27 फीसदी के आसपास है। जाहिर है कि समाज के अति पिछड़े वर्ग को सामाजिक न्याय की जरूरत ज्यादा है। इसके अलावा जातियों के समीकरण को देखें तो मुसलमानों के बाद दूसरी सबसे बड़ी आबादी यादवों की बताई गई है। यही सियासत थी लालू प्रसाद की। लालू प्रसाद ने जितने दिनों तक बिहार में शासन किया, उनकी सियासत का मूलाधार एमवाई समीकरण अर्थात मुसलमान-यादव समीकरण ही रहा।

लालू यादव का महामंत्र

इन नतीजों से एक बात और साफ होती है कि जिन जातियों के खिलाफ लालू या उनके लोग जहर उगला करते थे, उनकी संख्या बिहार में औरों की अपेक्षा बहुत कम है। प्रसंगवश लालू के उस महामंत्र को याद किया जा सकता है जिसमें कुछ लोग कहा करते थे-भूराबाल साफ करो। मतलब भू (भूमिहार), रा (राजपूत), बा (ब्राह्मण) और ल (लाला या कायस्थ) के जरिए कथित तौर पर बिहार की अगड़ी जातियों से पिछड़ी जातियों को लड़ाने की सियासत हो रही थी। लेकिन मौजूदा नतीजे बताते हैं कि इन कथित अगड़ी जातियों का तो वैसा कोई वजूद ही नहीं है।

ताजा आंकड़ों के आधार पर पता चलता है कि बिहार में भूमिहारों की आबादी 2.89 फीसदी, राजपूतों की आबादी 3.45 फीसदी, ब्राह्मणों की आबादी 3.67 फीसदी तथा कायस्थों की कुल आबादी महज 0.60 फीसदी ही है। अब भला इतनी कम आबादी वालों के खिलाफ जहर उगल कर बिहार में किस समाजवाद को लाने की लालू वकालत कर रहे थे, यह तो वही जानें लेकिन इतिहास उनसे जरूर पूछेगा कि यादव और मुसलमानों के अलावा भी बिहार में कुछ लोग थे, जिन्हें अति पिछड़ा कहा जाता है-उनके बारे में राजद की सरकार ने क्या किया।

बिहार देश का पहला राज्य

जातिगत जनगणना कराने की योजना नीतीश कुमार के साथ ही भाजपा और लालू की पार्टी ने आपसी विचार-विमर्श से ही तय की थी। इसे पटना हाईकोर्ट की ओर से रोका गया लेकिन सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर जनगणना हुई तथा अब ये आंकड़े सबके सामने हैं। इस मामले में बिहार देश का पहला राज्य है जहां जातियों के आधार पर जनगणना कराई गई है। कांग्रेस की ओर से भी पूरे देश में जातिगत जनगणना कराने की घोषणा की जा रही है। लेकिन यहां एक सवाल खड़ा होता है। जनगणना क्या केवल सियासी समीकरण बनाने के लिए होगी अथवा सचमुच जो पिछड़े हैं, उनको न्याय दिलाने के लिए। यदि न्याय दिलाने की बात है तो इसका स्वागत किया जा सकता है लेकिन केवल सियासी समीकरण की बात हो तो यह समाज को और विभाजित ही करेगा। इन आंकड़ों से बिहार सरकार क्या फैसला लेती है-यह देखना जरूरी होगा।