सवाल बहिष्कार का

भूलना नहीं चाहिए कि मीडिया की भूमिका किसी शासक को खुश करने की नहीं, बल्कि आम जनता के हितों की रक्षा के लिए सरकार के समक्ष एक मंच स्थापित करना तथा कानून का राज कायम रखने में प्रशासन का सहयोगी बनना। ऐसे में मीडिय़ा को बहिष्कार करने का मतलब ही है जनता की समस्याओं से मुंह मोड़ना।

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भारत में बहिष्कार कोई नया नहीं है। देश की आजादी के समय भी तरह-तरह से अंग्रेजी हुकूमत के कामकाज का बहिष्कार हुआ करता था। आजादी मिलने के बाद भी कई बार बहिष्कार शब्द सुना गया है। लेकिन इस बार थोड़ा अजीब लग रहा है। मोदी सरकार को देश से हटाने के लिए गैर-भाजपाई मानसिकता वाले दलों का एक खास मोर्चा बनाया गया है। इसमें सभी दलों की ओर से कोशिश हो रही है कि मोदी सरकार के विकल्प के तौर पर एक बड़ी ताकत खड़ी की जाए। और इसी कोशिश में देश की लगभग 26 पार्टियों की ओर से आईएनडीआईए नामक एक गठजोड़ किया गया है।

इस गठजोड़ के काम करने का तरीका क्या होगा, इसका नेता कौन होगा, इसमें किस दल को किस राज्य में कितनी सीटें मिलेंगी या वह दल कितनी सीटों पर लड़ेगा तथा इस गठबंधन का संयोजक कौन होगा-अभी यह सबकुछ अंधेरे में है। बस, प्रकाश में आई है तो एक बात। वह यह कि कुछ मीडिया समूहों के पत्रकारों का बहिष्कार किया जाएगा। बहिष्कार उसी का किया जाता है जिससे किसी तरह की हानि होती है।

बहिष्कार की बात

जाहिर है कि नवगठित यह गठबंधन पूरी तरह तैयार होने से पहले ही मीडिया के कतिपय लोगों के बहिष्कार की बात करने लगा। इसे हास्यास्पद ही कहा जाएगा। गठबंधन में किसे क्या भूमिका मिलेगी, नेता कौन होगा तथा हार-जीत किसे मिलेगी, यह सवाल अभी काफी दूर है। लेकिन हर सवाल से पहले गठबंधन को यही लग रहा है कि कुछ मीडिया के लोगों की वजह से उनका नुकसान हो सकता है। ऐसे लोगों का बहिष्कार किया जाना चाहिए।

लेकिन मुद्दा यह है कि देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी कोई चीज है। मीडिया को अगर संविधान के रचनाकारों ने चौथा स्तंभ कहा है तो इसका कोई मतलब है। देश चलाने वालों में सबसे बड़ी बीमारी आजकल यह देखी जा रही है कि जो बात उनके मन के मुताबिक नहीं लगे, उससे वे कभी सहमत नहीं होते। पिछले कुछ दशकों में सियासत का चेहरा कुछ ऐसे बिगड़ा है जिसमें विरोधी सुर को पसंद करने या अपने विरोधियों के साथ भी सहानुभूति से पेश आने की व्यावहारिकता लगभग अप्रासंगिक हो चली है।

मीडिया की भूमिका

जिस शासक के खिलाफ कोई बात होती है, वही बिफर जाता है। ऐसे में पूछा जा सकता है कि मीडिया का गठन क्या सरकार चलाने वालों की दलाली के लिए किया गया था अथवा जनता के हितों की रक्षा के लिए। इसे भूलना नहीं चाहिए कि मीडिया की भूमिका किसी शासक को खुश करने की नहीं, बल्कि आम जनता के हितों की रक्षा के लिए सरकार के समक्ष एक मंच स्थापित करना तथा कानून का राज कायम रखने में प्रशासन का सहयोगी बनना। ऐसे में मीडिय़ा को बहिष्कार करने का मतलब ही है जनता की समस्याओं से मुंह मोड़ना।

पूछा जा सकता है कि जनहित की समस्याओं से मुंह मोड़कर क्या कोई देश की नुमाइंदगी कर सकता है। क्या ऐसे लोगों को जनता सिर-आँखों पर बिठा लेगी जिन्हें मीडिय़ा के नुमाइंदों से ही नफरत हो। होना तो यह चाहिए था कि मीडिया चाहे जो दिखाए, जो कहे- सभी दल आपसी एकजुटता के साथ मोदी सरकार के खिलाफ जोरदार मोर्चाबंदी करते। विपक्षी गठबंधन को ध्यान रखना चाहिए कि गठजोड़ राजनीतिक दलों के स्वार्थों पर आधारित होता है, उसमें किसी मीडिया संस्थान की कोई भूमिका नहीं होती। बहिष्कार की यह घोषणा नवगठित मोर्चे के लिए अभिशाप न बन जाए, इसका भी ध्यान रखा जाना चाहिए।