वोट के लिए नोट

लोकतंत्र की दुहाई देने वाले लोगों ने सार्वजनिक जीवन में शुचिता कायम रखने की शर्त पर देश को बहुत कुछ समझाया है लेकिन जब खुद के गिरेबान में झाँकने की बात सामने आती है तो लोग कानून का इस्तेमाल करके किसी भी तरह से बचने लगते हैं। वोट के लिए नोट केवल राजनेताओं के साथ ही नहीं, जनता के साथ भी जुड़ा है।

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फिर वही बात सामने आई है। लोकतंत्र की दुहाई देने वाले लोगों ने सार्वजनिक जीवन में शुचिता कायम रखने की शर्त पर देश को बहुत कुछ समझाया है लेकिन जब खुद के गिरेबान में झाँकने की बात सामने आती है तो लोग कानून का इस्तेमाल करके किसी भी तरह से बचने लगते हैं। शुक्र है कि देश की शीर्ष अदालत ने वोट के लिए नोट मसले को फिर से उभारने का संकल्प लिया है तथा इसके लिए सात जजों की विशेष खंडपीठ गठित कर दी गई है। वोट के लिए नोट केवल राजनेताओं के साथ ही नहीं, जनता के साथ भी जुड़ा है। और वृहद रूप से देखा जाए तो यह पूरे लोकतंत्र के लिए एक दीमक की भूमिका अदा कर रहा है।

कभी अल्पमत की किसी सरकार को टिकाए रखने के लिए किसी दूसरे दल के नेता को खरीद लिया जाता है। इस तरह वह पैसे लेकर अल्पमत वाली सरकार को बहुमत में लाने के लिए वोट बटोर लिया करता है। ठीक उसी तरह चुनाव के समय कई दलों की ओर से मतदाताओं को पटाने की कोशिश की जाती है। इस दौरान उन्हें भी खुद के पक्ष में वोट देने के लिए कई राजनेता नोट दिया करते हैं। इस तरह वोट के बदले नोट का लेनदेन हर हाल में लोकतंत्र के लिए घातक है।

संवैधानिक प्रावधानों के आलोक में

पहला मामला तभी आया था जब बोफोर्स घोटाले की हवा में राजीव गांधी की सरकार बदनाम हुई और 1991 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को सरकार बनाने लायक सीटें हासिल नहीं हो सकीं। तब कथित तौर पर पी.वी. नरसिंहराव सरकार पर वोट के लिए रिश्वत देने के आरोप लगे थे। वोट के लिए नोट देने का वह पहला मामला था जिस पर बाद में सुप्रीम कोर्ट ने संवैधानिक प्रावधानों के आलोक में नरसिंहराव सरकार को आरोपों से बरी कर दिया था।

यह मामला पूरी तरह ठंडे बस्ते में चला गया होता यदि झारखंड मुक्ति मोर्चा की सीता सोरेन पर 2012 में नोट लेकर राज्यसभा के चुनाव में वोट देने का इल्जाम नहीं लगा होता। नोट के बदले वोट का मामला दुबारा फिर से देश को परेशान करने लगा है। दरअसल नोटों का खेल खेलकर पिछली बार 1998 में नरसिंह राव सरकार जिन प्रावधानों के तहत बच गई थी, अब संवैधानिक पीठ उन्हीं की समीक्षा कर रही है।

लोकतंत्र को मजबूत करने के प्रयास

बताया जाता है कि 1998 के रिश्वत कांड में सुप्रीम कोर्ट ने संविधान की धारा 105(2) के तहत दी गई उस छतरी का प्रयोग सांसदों के लिए किया जिसमें कहा गया है कि किसी भी तरह के बयान या मतदान के तहत किसी सांसद पर आपराधिक कार्रवाई नहीं की जा सकती। धारा 194(2) के तहत भी प्रवाधान रहा है कि सदन में किसी सदस्य के मतदान अथवा उसके भाषण पर अदालत में कोई कार्रवाई नहीं की जा सकती। इसी छतरी के तहत नरसिंहराव को अदालत से राहत मिली थी। लेकिन जो परिपाटी चल पड़ी है, उसमें नोट के बदले वोट की सियासत को रोककर लोकतंत्र को मजबूत करने के प्रयास जरूरी हैं।

खुद चुनाव आयोग भी चाहता है कि सार्वजनिक जीवन में शुचिता को कायम रखने की जरूरत है। जबतक चुनाव प्रणाली में पैसे के प्रभाव को रोका नहीं जाता है तबतक स्वस्थ लोकतांत्रिक व्यवस्था की स्थापना मुश्किल होगी। इसी सोच के तहत संवैधानिक पीठ ने भी माथापच्ची शुरू की है। नोट के बदले वोट मामले पर दुबारा की जाने वाली सुनवाई किस ओर जाती है तथा इस पर क्या फैसला आता है- यह देखना श्रेयस्कर होगा।