खूंटी : झारखंड के जानजातीय समाज और सदानों द्वारा कई तरह के पर्व त्योहार मनाये जाते हैं, पर इनमें दो पर्व करमा और जीतिया या जीवित्पुत्रिका सदानों और आदिवासियों द्वारा समान श्रद्धा और विश्वास के साथ मनाये जाते हैं। अंतर सिर्फ इतना है कि करमा पर्व में आदिवसाी समाज में पूजा-पाठ पाहनों द्वारा कराया जाता है, वहीं मूलवासियों (गैर आदिवासियों) में यह काम पंडित-पुरोहित कराते हैं।
करमा पर्व जनजातीय समुदाय का सरहुल के बाद दूसरा सबसे बड़ा त्योहार है। करमा का त्योहार मुंडा, हो, खड़िया, उरांव सहित अन्य जनजातियों द्वारा समान रूप से मनाया जाता है। करमा पर्व भाद्रपद या भादो महीने के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को मनाया जाता है। इस बार 25 सितंबर को पूरे झारखंड सहित ओडिशा, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश आदि राज्यों में मनाया जाएगा।
सरना समाज के नेता और जनजातीय समाज को नजदीक से जानने वाले भीम मुंडा बताते हैं कि सरहुल जहां रबी फसल होने के बाद मननाया जाता है, वहीं करमा का त्योहार धान रोपनी के बाद अच्छी फसल की कामना के लिए मनाया जाता है। उन्होंने कहा कि सरहुल और करमा दोनों की त्योहार प्रकृति से जुड़े हैं। यह पर्व बहनें अपने भाइयों की सुख-समृद्धि और लंबी आयु के लिए मनाती हैं, जो उनके पवित्र संबंध और अटूट प्रेम को दर्शाता है। भीम मुुंडा ने कहा कि करमा पर्व को आदिवासी संस्कृति का प्रतीक भी माना जाता है। इस पर्व में एक खास नृत्य भी किया जाता है, जिसे करम नाच करमा नृत्य भी कहा जाता है।
उन्होंने कहा कि इस पर्व को खासकर कुंवारी लड़कियां ही मानती हैं। इस पर्व में बहनें अपने भाइयों की सुरक्षा के लिए उपवास रखती हैं। इन व्रतियों को करमैती या करमइती कहा जाता है। इस पर्व को मनाने के लिए करमैती तीन, पांच, सात या नौ दिन का अनुष्ठान करती हैं। इस दौरान पूरा परिवार सात्विक ढंग से रहता है। भीम मुंडा ने कहा कि करमा पर्व के पहले दिन करमैती किसी नदी, तालाब या किसी डोभा किनारे से बांस के डलिया(टोकरी) में बालू भर कर लाती हैं। घर आकर पूरे नेम-निष्ठा के साथ टोकरी के बालू में सात तरह के अनाज कुलथी, चना, जौ, तिल, मकई, उरद, सुरगुजा या गेहूं) के बीजों डल दिया जाता है और हर हर दिन सन करके उसमें पानी दिया जाता है। कुछ ही दिनों में छोटे-छोटे पौधे उग आते हैं, जिसे जावा कहा जाता है।
सरहुल में जो महत्व सखुआ के फूल का है, वही महत्व करमा में जावा का है। करमैती हर दिन सुबह-शाम जावा के पास गीत गाती हैं और नृत्य करती हैं, जिसे जावा जगाना कहते हैं। दशमी के दिन करम राजा को निमंत्रण देने के लिए जाना पड़ता है। निमंत्रण वही देने जाती है, जो उपासक होती है। करम वृक्ष के पूरब तरफ़ के दो चंगी वाली डाली को माला से बांधा जाता है और करम देवता से प्रार्थना की जाती है कि हमलोग कल आपके पास ढोल-नगाड़े के साथ आएंगे, आपको हमारे साथ चलना होगा। निमंत्रण देने के लिए डलिया में सिंदूर, बेल पत्ता, गुंड़ी (अरवा चावल को पीसकर बनाया जाता है) सुपारी, संध्या दीप आदि साथ ले जाना पड़ता है। एकादशी के दिन सुबह ही सभी लड़कियां (करमैती) फूल लोहरने (फूल तोड़ने )के लिए अपने आसपास के जंगल या बगानों में जाती हैं।
फूल, पत्ता, घास, धान इत्यादि जो मिलता है, सबको एक नयी टोकरी में जमा किया जाता है। शाम को पाहन करम की डाली को काटकर अखड़ा और लोगों के घरों में गाड देते हैं। पाहन द्वारा पूजा करने के बाद ही व्रतियों को पूजा करने की अनुमति होती है। सदानों के घरों में भी पाहन की करम की डाली गाड़ते हैं। करमा वृक्ष से डाल को कुल्हाड़ी से एक ही बार में काटा जाता है तथा इसे जमीन पर गिरने नहीं दिया जाता है। करमा पूजा के दिन करमा की छोटी-छोटी डाली को खेत-खलिहानों रोपा जाता है। पूजा के समय करमैती करम डाली के चारों ओर आसन पर बैठ जाती हैं। इसे प्रकृति के आराध्य देव मानकर पूजा करती है और बहनें अपने भाइयों के स्वास्थ्य रहने और सुरक्षा की कामना करती हैं। पूजा के दौरान पाहन द्वारा करमा-धरमा की कहानी भी सुनायी जाती है। पूजा होने के बाद करमैती अपना उपवास तोड़ती हैं। उसके बाद सभी करमैती तथा आसपास तथा घर के लोग खूब नाच-गान करते हैं। मांदर के साथ साथ ढोल-नगाड़े की थाप पर सभी थिरकते है और करम नृत्य करते हैं। पूजा समाप्त होने के बाद अगले दिन सुबह करमैती करम डाली को पूरे धार्मिक रीति-रिवाज के साथ तालाब, पोखर या नदी में गीत गाते और नृत्य करते हुए विसर्जित कर देती हैं।
बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है करमा पर्व भीम मुंडा बताते हैं कि करमा पर्व बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है। उन्होंने कहा कि प्रचलित कथा के अनुसार आदिकाल में सात भाई एक साथ रहते थे, जो कड़ी मेहनत के साथ खेती-बारी करते थे। उनके पास दोपहर के भोजन के लिए भी समय नहीं था। इसलिए, उनकी पत्नियां प्रतिदिन उनका दोपहर का भोजन खेत में ले जाती थीं। एक बार ऐसा हुआ कि उनकी पत्नियां उनके लिए दोपहर का खाना लेकर खेत नहीं पहुंची। वे दिन भर भूखे थे। शाम को वे घर लौटे, तो देखा कि उनकी पत्नियां आंगन में करम पेड़ की एक शाखा के पास नाच-गा रही थीं। इससे वे क्रोधित हो गए और एक भाई ने अपना आपा खो दिया। उसने करम की डाली छीनकर नदी में फेंक दी। करम देवता का अपमान किया गया। परिणामस्वरूप, उनके परिवार की आर्थिक स्थिति ख़राब होती चली गई और वे भुखमरी की स्थिति में आ गए।
एक दिन एक पुजारी उनके पास आया, और सातों भाइयों ने उसे पूरी कहानी सुनाई। फिर सातों भाई करम देवता की तलाश में गांव से निकल गए। वे एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते रहे । एक दिन, उन्हें करम का पेड़ मिला। इसके बाद, उन्होंने इसकी पूजा की और उनकी आर्थिक स्थिति में सुधार होने लगा। भूमिज और उरांव समाज में प्रचलित कथा के अनुसार आदिकाल में सात भाई एक साथ रहते थे। छह बड़े भाई खेतों में काम करते थे और सबसे छोटा घर पर रहता था। वह अपनी छह भाभियों के साथ आंगन में करम की डालली के चारों ओर नाच-गाने में मगन था। एक दिन, वे नृत्य और गीत में इतने तल्लीन थे कि भाइयों का सुबह का भोजन पत्नियों द्वारा खेत में नहीं ले जाया गया। जब भाई घर पहुंचे, तो वे क्रोधित हो गए और करम की डाली को नदी में फेंक दिया। सबसे छोटा भाई क्रोधित होकर घर छोड़कर चला गया। फिर बचे हुए भाइयों पर बुरे दिन आ गये। उनका घर क्षतिग्रस्त हो गया, फसलें बर्बाद हो गई। भटकते समय सबसे छोटे भाई को नदी में तैरती हुर्ठ करम की डाली मिली। फिर उसने भगवान को प्रसन्न किया, जिसने सब कुछ बहाल कर दिया। इसके बाद वह घर लौट आया और अपने भाइयों को बुलाया और उन्हें बताया कि उन्होंने करम देवता का अपमान किया है। वे बुरे दिनों में पड़ गये। तभी से करम देवता की पूजा की जाने लगी।