सम्मान न सही, अपमान तो मत करो यारां

अतीत की गलतियों का ठीकरा फोड़कर वर्तमान को मजबूत नहीं किय़ा जा सकता। वर्तमान को अतीत की नींव पर भविष्य की आधारशिला रखनी होती है, ऐसे में अतीत का भी उतना ही महत्व है। कोई आज कितना ही पराक्रमी क्यों न हो जाए, अतीत को न तो झुठला सकता है तथा ना ही उसे मिटा सकता है।

कुछ ऐसी ही दुखद कहानी पंडित जवाहरलाल नेहरू के जन्मदिन को लेकर दुहराई जाती रही है। पंडित नेहरू के जन्मदिन पर उनके किए कार्यकलापों की खूब चर्चा हुई और उसमें ज्यादा बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया केंद्र सरकार में शासक की भूमिका निभाने वाले दल के नेताओं ने।

भाजपा की ओर से किरण रिजिजू ने पंडित नेहरू की नीतियों की जमकर आलोचना की। हो सकता है कि नेहरू ने देश चलाने का जो तरीका सोचा, वह उनके दौर में उन्हें सही लगा हो।

लेकिन नेहरू के बाद की सरकारों ने भी सारा काम सही तरीके से ही किया होता तो शायद इतने सियासी विवाद नहीं उभरे होते। दरअसल जो भी सत्ता पर काबिज होता है वह अपनी सोच और सहूलियत के साथ ही तात्कालिक परिस्थितियों के आधार पर नीतियां तय करता है।

ऐसे में कम से कम जन्मदिन के मौके पर यदि राजनीतिक दलों की ओर से पंडित नेहरू को दरकिनार रखकर बच्चों के अजीज चाचा नेहरू को याद कर लिया जाता तो बुरा नहीं होता। बाकी साल के 364 दिन राजनीति करने के लिए काफी हैं।

ध्यान रहना चाहिए कि जो भी आज सत्तारूढ़ है, कल उसे अतीत बन जाना है। लोकतंत्र का चरित्र ही ऐसा है। बेहतर यही होता कि पं. नेहरू की नीतियों की समीक्षा से इतर हम देश को और अधिक विकसित बनाने की दिशा में ध्यान देते तथा विकास और रोजगार सृजन के क्षेत्र में आम लोगों की अधिक से अधिक भागीदारी तय करते।

अतीत के राजनीतिक फैसलों की समीक्षा करने वाले आज के सियासी आकाओं को कम से कम अमेरिका जैसे लोकतांत्रिक देश से ही सीख लेनी चाहिए, जहां किसी अन्य विचारधारा की सरकार भले ही बन जाती है लेकिन पिछली सरकार के कामकाज की खुल्लमखुल्ला इतनी नुक्ताचीनी नहीं की जाती। हम 75 साल से आजाद हैं।

अब गड़े मुर्दे उखाड़ कर सियासत करने की नीति से परहेज रखें, अक्लमंद बनें। भारतीय सभ्यता के मुताबिक अपने बुजुर्गों का सम्मान यदि नहीं कर सकें तो कम से कम उनकी निंदा करने से बचें। अपने पुरखों की निंदा दरअसल अपनी ही निंदा समझी जाती है। इस नए दौर में अब आगे देखने की जरूरत है, अलबत्ता पिछली गलतियों से सबक जरूर लेते रहें।

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