अशोक पाण्डेय
स्वतंत्र भारत में किसी के रंग-रूप पर हंसना या खिल्ली उड़ाना सामाजिक तथा कानूनी तौर पर भी वर्जित है। यह निंदनीय है, सजा के काबिल है। और अगर देश के सर्वोच्च पद पर बैठे किसी इंसान को इस तरह की हंसी का पात्र बनाया जाय तो इसे सबसे शर्मनाक कहा जाएगा। यह घटना भी आज के बंगाल में हुई है, जिस प्रदेश को संस्कृति संपन्न कहा जाता है।
बंगाल की धरती पर देवियों की पूजा होती है। यूनेस्को ने भी बंगाल की दुर्गापूजा का लोहा माना है। दुर्गा को बंगाल की अवाम अपनी बेटी मानकर पूजती है। उसी बंगाल का एक मंत्री अगर देश की महिला राष्ट्रपति के रूप को लेकर ठिठोली करता है, तो इससे पूरे बंगाल के साथ ही देश का सिर भी शर्म से झुक जाता है। द्रौपदी मुर्मू अगर आदिवासी समाज से आती हैं, भारत की मूल मिट्टी से संबंध रखती हैं तथा राष्ट्र की सेवा के लिए समर्पित रही हैं, तो इसमें उनका क्या कसूर है।
बंगाल के मंत्री अखिल गिरि ने श्रीमती मुर्मू का जो मखौल उड़ाया है वह भारतीय संविधान के साथ ही पूरी दुनिया से मजाक है। ज्ञात रहे कि भारतीय संविधान में किसी भी नागरिक के साथ किसी तरह के जाति, नस्ल या रंग-भेद अथवा मजहबी भेदभाव की गुंजाइश नहीं है। यदि जानबूझकर ऐसे अपराध किए जायं तो कड़ी सजा का भी प्रावधान है।
अखिल गिरि को शायद यह पता नहीं कि रंग-भेद के खिलाफ जेल के सीखचों में बंद रहे धरती के सिंह-सपूत नेल्सन मंडेला ने ऐसी आग जलाई कि अफ्रीका में क्रांति का नया सूर्योदय हुआ था। रंग और नस्ल भेद के खिलाफ खुद संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 20 नवंबर 1963 को ही प्रस्ताव पारित कर दिया था जिसमें नस्लीय टिप्पणी या भेदभाव के विरुद्ध कड़े कदम उठाने के प्रावधान थे। यूएन के 4 जनवरी 1969 के चार्टर की आर्टिकल 4 के तहत नस्ल के आधार पर की गई टिप्पणी को अपराध माना जाएगा और दुनिया का हर देश ऐसे अपराधों के लिए सजा तय करेगा।
गिरि साहब शायद यह भूल गए कि वह जहां द्रौपदी मुर्मू की खिल्ली उड़ा रहे थे- वह जमीन भी इसी धरती का एक हिस्सा है, जिसमें भारत नामक देश के अंग को पश्चिम बंगाल कहा जाता है। उन्हें शायद यह याद ही नहीं रहा होगा कि बंगाल की कमान भी बंगाल की एक अप्रतिम बेटी के हाथ में है जिसे लोग ममता बनर्जी कहते हैं। ऐसे कुकृत्य के लिए अखिल गिरि को समाज किस अंजाम तक पहुंचायेगा- अभी यह देखना बाकी है। लेकिन ऐसी घिनौनी सोच और विकृत रूचि को धिक्कार है।